पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/९९

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सगुण-मतवाद रारानुगा और वैधी भक्तिके साधक शरीर, मन, आरम्या, प्रकृति और समाजगत अनुशीलनोंके द्वारा भगवान्का भजन करते हैं। उनके लिए ये दस वार निषिद्ध हैं--(१) बहिर्मुख लोगोंका संग अर्थात् अनैतिक, अविश्वासी और मिथ्याचारी लोगोंका संग उन्हें त्याज्य है । (२) शिष्य, संगी, भृत्य या बान्धवोद्वारा किया हुआ अनुबंध, (३) महारंभक उद्यम, (४) नाना ग्रंथ, कलाओं और वाद्योंका अभ्यास, (५) कृपणता, (६) शोकादिसे वशीभूत होना, (७) अन्य देवताके प्रति अवज्ञा, (८) जीवों को उद्विग्न करना, (९) सेवापराई अथात् यनको अभाव, अवज्ञा, अपवित्रता, निष्ठाका अभाव और गर्व तथा (१०) नामापराध अर्थात् साधुनिन्दा शिव और विष्णुको पृथक्त्व-चिन्तन, गुरुअवज्ञा, देवादिनिन्दा, नाम-माहात्म्यके प्रति अनास्था, इरिनामकी नानाविध अर्थकल्पना, नाम-जए और अन्य शुभकर्मोकी तुलना करना, अश्रद्धालुको नामोपदेश, नामके प्रति अप्रीति । वैध भइतकी तीन अबस्थायें होती है। श्रद्धावान्, नैष्ठिक आर रुचियुक्त। ये लोग पाँच अंगों और दो मूलतत्त्वोंको स्वीकार करते हैं। दो मूलतत्त्व हैं--(१) भगवान् ही एकमात्र जीवोंका मर्तब्य हैं और जो उनके सुमिरनमें सहायक हैं वे ही कर्म भङ्तके कर्तव्य हैं, चाहे वह कुछ भी क्यों न हों, (२) भगवान्को भूल जाना ही अमंगल है और इसे अमंगलके सहायक सभी कार्यं त्याज्य हैं । पँच अंग इस प्रकार हैं—(१) भगवान्के विग्रह (मूर्तियाँ) की सेवा, (२) कथा-सलंग, (३) साधु-संग, (४) नाम-कीर्तन और (५) ब्रजवास । बैधी मार्गको साधक स्वभावतः हैं। इन्हें पालन करता है । त्ति-शास्त्रकी मर्यादाक्रे अनुसार कोई भक्त किसीसे छोटा या बड़ा नहीं हैं पर भक्तकी स्वाभाविक इच्छा हो हीती है कि भगवतु-प्रसंगमें उसकी स्वाभाविक रुचि हो जाय। अब, मध्ययुगके भक्ति-साहित्यको देखें तो उसमें इन विधि-निषेधोंके । उपदेश, रूपक और अन्योक्तियाँ भरी पड़ी हैं। भक्ति शास्त्रकी मयादाको न समझनेवाले इन बातोंसे ऊब जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि इस युराका साहित्य केवल साई है बल्कि लोकमें बुद्धमूल साधना-पद्धतिका प्रतिफलन भी है । उसका सर पहलू ही अधिक महत्वपूर्ण है ।। ऐसे भक्त बहुत कम हैं जिनको भगवत्प्रसादसे एकाएक प्रेमकी प्राप्ति हो जाय । साधारणतः प्रेमोदय निम्नलिखित क्रमसे होता है--१ अद्धा, २ साधुसंग, ३ भजनक्रिया, ४ अनर्थ-निवृत्ति, ५ निशा, ६ रुचि, ७ आसक्ति, ८ भाव और