पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/९८

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हिन्दी साहित्य की भूमिका तबतक भुक्तको प्राप्त नहीं होती जबतक भगवान् स्वयं कृपा न करें ।' भक्तिहीन ब्रह्मा भी भगवान्के निकट अप्रिय है पर भक्तियुक्त नीचसे नीच प्राणी भी उन्हें प्राणके समान प्रिय हैं। वह प्राणी जन्म और कर्मसे कितना भी ओछा क्यों न हो भगवान् उसके निकट दौड़ आते हैं। | ऊपर जिस भक्तिकी बात कही गई है वह दो प्रकारकी होती है, रागानुगा और वैधी । कर्तव्य-बुद्धिसे जो नियम स्थिर किये जाते हैं उसे विधि कहते हैं और स्वाभाविक रुचिसे जो वृत्ति उत्तेजित होती है उसे राग कहते हैं । अर्थात् इष्ट वस्तुके प्रति स्वाभाविक तन्मयताको राग कहते हैं। और राप जिसके प्रति धावित होता है वही इष्ट होता है। भगवान् और बद्ध जीवमें एक स्वभावगत पार्थक्य यह है कि जीव विषयांसर्कि होती है और भगवान् वैराग्य । तुलसीदासने कहा है कि भगवान् अखण्ड ज्ञान-स्वरूप हैं और जीव मायावृश अज्ञानी । यह जीव * मायके वशमें होनेके कारण परवश है और भगवान् मायके अधिपति और स्ववश । जड़ देहके प्रति भी राग होता है पर चूकि वह जड़ोन्मुख होता है इसलिए संसार में बंधनका कारण होता है, पर जीवकी स्वाभाविक राग-प्रवणता एदि । भगवान्की ओर हो जाय तो वई तर जाता है। जड़-जगत्म विधि और रागमें विरोध दिखता है पर भगवद्विषयक होनेपर विधि और राग में कोई विरोध नहीं रह जाता। जबतक राग पुष्ट नहीं होता तभी तक भक्तको कर्तव्याकर्तव्यका बंधन रहता है। ब्रजवासियोंक भगवान्के प्रति यात्मक सम्बन्ध था । इसीलिए उनकी भक्तिको रागात्मक भक्ति कह्ते हैं। इस भक्तिके अधिकारी केवल ब्रजवासी ही थे। जो भक्त उनका अनुकरण और अपनेमें उनका अभिमान करके भगवान्के :प्रसंग-सुखका अनुभव करते हैं उनकी भक्तिको रामानुगा भक्ति कहते हैं। १ सो मति यदपि प्रगट जग अहई । रामकृपा बिनु नहिं कोउ लहई ।। २ भातिहीन विरांच किन होई । सब जीवनसँह अप्रिय सोई। ३काहूके कुल नाहिं विचारत । अविगतकी गति कहीं कौन सौ पतित सबनके तारत ।। ओळे जन्म कर्मके छे ओछे ही बेलिवित । अनित सहाय सुरके प्रभुकी भक्तहेतु पुनि आवत ।। 4--सूरदास