पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/९७

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सं -पतवाद इस वैष्णु-निनादका वर्णन विस्तृत रूपसे किया है। भगवान्की विग्रह-माधुरी अर्थात् रूप-माधुर्य मध्ययुगका साहित्य भरा पड़ा है। ऐसा तनुघारी जगत्में नईई जो इस रूप-माधुरीके दर्शनसे सुग्ध न हो इवा हो ।' गोस्वामी तुलसीदासने प्रत्येक व्यक्तिके साथ भगवान्के समागमके लेगमें बड़ी सावधानी से उसका सुग्ध होना बुलाया है। इस विषयमें रामचरितमानसके राम और भूइरावतके श्री समान हैं। भागवतमें कहा है कि त्रिलोकीमें ऐसा कौन है जो भगवान्के कल-पदामृतरूप वेणु गीतसे विमोहित होकर और त्रैलोक्य-सौभग इस रूपको देखकर मुग्ध न हो जाय ? इस वेणु-गीतको सुनकर और रूपको देखकर गायें, पक्षी, वृक्ष और मृग भी पुलकित हो जाते हैं। इस माधुरीका छका हुआ भक्त स्वर्ग अपच नहीं चाहता, ऋद्धिसिद्धिकी परवा नहीं करता, केवल अनन्त कालतक अव्यभिचारिणी भक्तिकी कामना करता है। एक बार इस सगुण रूपको स्मुर करके वृद्द ज्ञान-विज्ञान सबको नमस्कार कर देता है। ज्ञान और विज्ञान धर्म और कर्म, सभी भक्ति के सामने तुच्छ हैं । क्योंकि वह जानता हैं कि शानका मार्ग कृपणकी धारा है। उसपरसे गिरते देर नहीं लगती । उसे किसी प्रकार पार किया जा सके तो निश्चय ही कैवल्यपद प्राप्त किया जा सकता है; लेकिन भक्त के पास तो यह कैवल्य पद बिना मागे जबर्दस्ती अनिा चाहता है। हरिभक्तिके बिना बड़ास बड़ा पद भी टिक नहीं सुक्रता। यह भक्तिरूप चिन्तामणि १ कहहु सखी अस के तनधारी । जे न मोह अस रूप निहारी ।। ---रामचरितमानस २ का स्यंग ते लपदामृतदसतर्थचरितज्ञ चलत् त्रिलोक्यम् । त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद्गद्भिजडुममृगाः पुलकान्यबिभन् । भागवत १०, २९,४०, ३ ग्यान पंथ कृपाणकै धारा परत खगेस होइ नहिं बारा ।।। जो निरबिघन पंथ निरबहई । सो कैवल्य परम पद लहइ ।। । अति दुरलभ कैबल्य परमपद १ संत पुन निगम अगम बद ।। राम भजत सोइ मुक्ति गौसाई । ऋन इच्छित आवै बरिआई ।। जिमि थल दिनु जल रहि न सकाई । कोट भॉति कोउ करई उपाई ।। तथा मासुख सुनु खगराई । हि न सके हरि-भगत बिहाई १–मायणः