पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/९५

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सगु-मतच विशुद्ध वित्तद्वारा तुम्हारे निर्विकार रूप-हीन विज्ञान-वस्तुके रूपमें असु द्रझकी महिमा कदाचित् समझमें आ भी जाय, तो भी इस विश्वके लिए अवतीर्ण तुम्हारे इस गुण रूपकी गुणावली गिननेमें कौन समर्थ होगा ? जो अतिनियुएई हैं वे भी यदि दीर्घ काल तक गिनें तो पृथ्रीके परमाणु, आकाशके हिम और सूर्यादिकी किरणें गिन सकते हैं, पर वे भी तुम्हारे सगुण रूपके गुणोंकी रणना नहीं कर सकते। किन्तु भगवान्के वे गुण प्राकृत नहीं हैं अतः प्राकृत जनोंके आचरणादिके मान-दण्डसे इन्हें नहीं मापा जा सकता । वे असंख्य अप्राकृत-गुणविशिष्ट अपरि-. मित शक्तिशाली और पूर्णानन्दधन विग्रह हैं। कहा गया है कि निर्गुण निर्दैि शेष और अमूर्त ब्रह्म और श्रीकृष्का सम्बन्ध प्रभा और प्रभाकरके समान है। निराकार ब्रह्म ( अर्थात् चैतन्यराशि), अव्यये, अमृत ( अर्थात् नित्यमुक्ति), नित्यधर्म ( अर्थात् श्रवण प्रकृति भक्तियोग ) और ऐकान्तिक सुख ( अर्थात् प्रेमभक्ति } इन सबके आश्रय श्रीकृष्ण ही हैं। वे यद्यपि अज हैं फिर भी भक्तोंके लिए जुन्म ग्रहण करते हैं। यह बात कुछ अदभुत-सी सुनाई देती है। क्योंकि एक ही पदार्थ एक ही साथ अर्ज और जात नहीं हो सकता है इसके. उत्तरमें भागवत लोग कहते हैं कि भगवान्का ऐश्वर्य और वैभव अचिन्त्य है, उसकी तुलना प्राकृत जन्मादि व्यापारसे नहीं हो सकती । १ तथापि भूमन् नहिमाय ते, बिद्भुमर्हयनलान्तभिः ।। अविक्रियात्स्वानुभवादरूपता, ह्यनन्योधात्मत्या न चान्यथा ।। गुणात्मनस्तेऽगुणान् विमातुं हितावतीर्णस्य के इशरेऽस्य कालेन यैव विमिताः सुकल्यै भूपांसदः खे मिहिको छुभानुः ।। | -भागवत १०, १४, ६-६ १ लघुभागवतामृत, पृ० २१७