पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/९४

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हिन्दी साहित्यकी भूमिकई करते हैं। जो लोग उसके केवल निर्गुण रूपको मानते हैं वे असल्में भगवान्के एक अंशमात्रको जानते हैं। यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि उसका गुणमय रूप नहीं है। क्योंकि, जैसा कि नंददासने कहा है, जो उनमें गुण न होते तो और गुण आते कहाँसे १ कहीं बीज बिना वृक्ष भी किसीने देखा है ? निर्गुण्डू और सगुणके विषयमें सूरदासको दृष्टिकोण तुलसीदाससे थोड़ा भिन्न है। ये सगुणको सहजसाध्य मानते हैं और निर्गुण उपासनाको कष्ट-सोध्यो । सगुण उपासना सरस और ग्राह्य है पर निर्गुण उपासना नीरस । यद्यपि निखिलानन्दसंदोह भगवान् वही हैं जिन्हें अष्टांग योगी परमात्मा, औपनिषदिकगण ब्रह्म और ज्ञान-योगी लोग ज्ञान कहते हैं तथापि ब्रहा था परमात्माकी अपेक्षा श्रीकृष्ण ( रामचरितमानसके राम ) कहीं श्रेष्ठ हैं। ब्रह्म, परमात्मा और भगवान्का भेद अगल प्रकरणमें स्पष्ट किया गया है। भागवतमें कहा है कि एक ही क्षीर आदि इन्य जिस प्रकार बडुगुणाश्रय होकर चक्षु आदि इंद्रियोंद्वार भिन्न भिन्न रूपोंमें गृहीत होते हैं उसी प्रकार भगवान उपसिना-भदसे नाना प्रकारके प्रतिभात होते हैं। फिर भी श्रीकृष्णमें माधुर्य आदि गुणका प्राचुर्य होनेसे भगवान्का यह रूप ही श्रेष्ठ है। भागवतमें ही अन्यत्र कहा गया है कि, 'हे विभो, यद्यपि निर्गुण और गुए दोनों ही तुम्ही हो, तो भी ६ अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भदा । बर्हि मुले पुरान बुध वेदा । अनुन अरूप अलख अञ जाई । भगतप्रेमबस सगुन सो होई । २ जो उनके गुन नहीं और सुन भये कहाँतं १ वीज बिना तरु जमैं मॉर्हि तुम कहाँ कहाँते १ -भ्रमरगीत । ३ मधुकर हम अयान अति भौरी । जानें कहा जोगकी बातें, जे हैं नवलकिशोरी ।। ---सूरदास । ४ भगवान् परमात्मेति प्रेोच्यतेऽष्टांगयोगिभिः । ब्रह्मत्युपनिषन्निधैज्ञानं च ज्ञानयोगिभिः ।।


लघुभागवतामृतमें स्कंदपुराणकी उक्ति ।। ५ अथेन्द्रियैः पृथङ्करैः अर्थों बहुगुणाश्रयः ।

एक्री नानेयते तद्वत् भगवान् शस्त्रवर्मभिः ॥ ---भगवत ३, ३२, ३३.