पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/९३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

संशु-मतवाद ७३ अपने भक्तपर अनुग्रह करना'। इस प्रकार भगवान्के तीन प्रकारके अवतार होते हैं: पुरुषावतार, गुणवतार और लीलावतार । पुरुषावतार भी तीन प्रकारके हैं । जो महत्तवके सृष्टिकर्ता हैं उन्हें प्रथम गुरु, जो निखिल ब्रह्माण्ड अर्थात् समष्टिके अन्तयामी हैं उन्हें द्वितीय पुरुष और जो सर्वभूत अर्थात् व्यष्टिके अन्त मी हैं उन्हें तृतीय पुरुष कहते हैं। इसका अर्थ यह समझना चाहिएः प्रकृति और पुरुषकै संयोगसे ही सृष्टि उत्पन्न होती है। संयोगके बाद प्रकृतिके यह बुद्धि होती है कि मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ। इसी बुद्धिको महत्त्व कहते हैं। जो पुरुष इस बुद्धिके कर्ता हैं वे ही प्रथम पुरुष हैं। फिर सम्पूर्ण समष्टिरूपा सृष्टिके जो अन्तर्यामी हैं वे द्वितीय पुरुष हैं। अब तक एक बहुत हो गया रहता है और उसमें पृथक्त्व या अहंकार-तत्वको प्रादुर्भाव होता है । इसी पृथक्त्वक अन्तर्यामी भगवान्को तृतीय पुरुष कहते हैं । गुणावतार तो प्रसिद्ध ही हैं । सत्त्वगुणसे युक्त अवतार ब्रह्मा, रजोगुणसे युक्त विष्णु और तमोगुणसे युक्त अवतार रुद्र या शिव हैं ।। लीलावतार चौबीस हैं----चतुःसन, नुरिद, वराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, इयशीर्ष, हंस, ध्रुवप्रिय, ऋषभ, पृथु, दृसिंह, कूर्म, बन्चंतरि, । मोहिनी, वामन, परशुराम, राघवेन्द्र, व्यास, बलराम, बुद्ध, और कल्कि । | तुलसीदासजीने कहा है कि ब्रह्मके दो रूप हैं, अगुण और सगुण । इनमें सगुण रूप निर्गुण रूपकी अपेक्षा दुर्लभ है। इसीलिए सगुण्ड भगवान्के सुगम, और फिर भी अगम, चरित्रों को सुनकर मुनियोंके मनमें भी मोह उत्पन्न हो जाता है। वास्तवमें सगुण और अगुण या निर्गुण रूपमें कोई भेद नहीं । जो भगवान् अगुण, अरूप, अलख और अज हैं वहीं भगवान् भक्तके प्रेमवश सगुणरूप धारण १ भगतहेतु भगवान प्रभु, राम धेरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप । इसकी तुलनाके लिए ब्रह्माण्डू-पुराणके इस वचनको देखिए--- स्वलीलाकीर्तिविस्तारात् भक्तेष्वनजिघृक्षया ।। अस्य जन्मादिलीलानां प्राकट्ये हेतुरुत्तमः ॥ --लघुभागवतामृतमें उद्धृत २ निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहें कोई, सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि-मन भ्रम होइ । ---उत्तरकाण्ड