पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/९०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सगुण-मतवाद अब मध्य-युगके सगुण भावसे भजन करनेवाले अक्तोंकी बात ठीक ठीक सुमअनेके लिए उनके शास्त्रीय मूतवादको जानना जरूरी है। अगर इन शास्त्रीय सिद्धान्तोंको नहीं जान लिया जायगा तो यह समूचा साहित्य, जो वस्तुतः. बहुत ही महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली है, परस्पर-विरोधी बातोंका सामञ्जस्यहीन एक विचित्र संग्रह जान पड़ेगा । परम्परासे उसी वातावरणमैं पले हुए सहृदयके निकट चाहे उसमें कोई विचित्रता या विरोध न दिखाई पड़े पर बाहरका आदमी ठीक ठीक नहीं समझ सकेगा कि वैराग्य और भक्तिक प्रचारक भक्तगण किस प्रकार चीर-हरण और पनघट-लीलाओंका गान करते हुए भी अपूर्व भाव-रसभें निमग्न हो सकते हैं। उनके हृदयमें, सतीकी भाँति, पहले तो ब्रह्मके इस प्राकृत रूपके विषयमें ही सन्देह होगा--

  • ब्रह्म जो व्यापक निरज अज, अकल अनीह अभेद;

सौ कि देह धरे होई नर, जहि न जानत वेद ? विष्णु जी सुरहित नर-तनु-धारी । सोउ सर्वग्य यथा त्रिपुरारी ॥ खोजै सौ कि अग्य इव नारी । म्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥ मध्य-युगके इस श्रेणीके भक्तोंका प्रधान उपजीन्य ग्रंथ भागवत पुराण रहा है। परन्तु अन्यान्य पुराणों को भी उन्होंने प्रमाण रूपसे स्वीकार किया है। किसी सम्प्रदायमें तो भागवतको ही एकमात्र प्रामाण्य ग्रंथ मान लिया गया है। विद्वानों का अनुमान है कि सन् ईंसदीकी एक सहस्राब्दी बीत जानेके बाद सभी पुराने बर्तमान रूप ग्रहण कर लिया होगा, यद्यपि उनमें जो उनके प्राचीन्छ