पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/८९

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योग मार्ग और सन्त-मत जो सहज-साध्य है, उसके लिए कृच्छु-साधना व्यर्थ है । कबीरके बाद उनके संप्रदायालने या तो कत्रीरको संपूर्ण वेदान्ती इना देने की चेष्टा की या संपूर्ण यो । उनका योग-मार्गकी ओर झुकाव बढ़ता ही गया । ऐसे भजन करके नामपर मिल जाते हैं जिनमें आसन या प्राणायाम करने की शिक्षा दी गई है; पर ऐसे भजनोंकी प्रामाणिकता सन्देइसे पूरे नहीं है। कबीरदासके मतले योगी वह है जिसकी मुद्रा मनमें है, जो दिन-रात अपनी साधना जगा रहता हैं । मनमें ही उसका असिन हैं, सुनमें ही समाधिः महमें हैं। जप-तप हैं, इनमें ही कथोपकथन; मन ही खप्पर, मनमें ही सिंगा और मन में ही उसक; अनहद नाद भी अजा करती हैं। वहीं ऐसा हो सकता है जो पञ्चेद्रियरात विषयको दग्ध करके उन्हींकी राख शरीरसे मल सके, वही ऐसा जोगी है जो लंका जला सके, अर्थात् सिद्धि प्राप्त कर सके * । अर्थात् वइ हानी है। उसके मनसे द्वैतभावना जाती रही है, वह विराट् भगवत्सत्ताको मन और प्राणसे अनुभव कर चुका है । इस सहज-साधनाके लिए निर्गुण मतके साधक योग और तंत्रके कृच्छाचारकी आवश्यकता नहीं समझते । पर इसकी व्यावहारिक कठिनाइयोंसे भी वे सावधान थे ! उन्हें ज्ञात था कि इस साधनामें अधिक साहस, अधिक वीरता और अधिक संयमकी जरूरत है। वे उसको 'वीर' नहीं कहते जो तांत्रिक *बीराचा” में दक्षित है बल्कि उसे जो साहसपूर्वक अपने आपको कुरबान कर सकता है। दादू दयालने कहा है कि अपना सिर काटकर कबीर वीर हुए थे।

  • कबीर' का आदि अझर अथात् 'ॐ' काट दिया जाय जो शब्द सिरक समान है तो “ दीर' शब्द भी बन जाता है। }+

जिहि तु चाहि सो त्रिभुवन-भोग । कहि कबीर कैसे? जग-जोगी ।। * सो जोगी जाके मनमें मुद्रा । रात-दिवस न करइ निद्रा ॥ मनमें असिन मनमें रहना । मनका जप-तप मनसे कहना ।। मनमैं खपरा मन सँग । अनहद बैन बजावें रंगी । पंज पजारि भसम करि बेका ! कहै कबीर सो लहलै लंबा ॥ + अपनी मस्तक काटि बीर हुअर कबीर ।।