पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/८८

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका झबीरदासका निजी अनुभव था जिसे उन्होंने गुरुके प्रतापसे पाया था । युइ सहज समाधि है क्य! चीज १ योगियोंके यत्नसे जब प्राणायामके द्वारः वय वह्म-झमें प्रवेश करता है तो जिस आनन्दपूर्ण अवस्थाको मन प्राप्त होता ३. उसे योगी लोग 'लय' या मनोन्मनी' (कबीरदासके शब्दों में उनमुनि शहनी ?) था * सजावस्था' कहते हैं। यही योगियोंकी सहज समाधि है । पर कबीरदास इसको सहज समाधि नहीं कहते । उनकी परिकल्पित सहज समाधमें साधक जहाँ कहीं जाता है वहीं परिक्रमा करता रहता है, जो कुछ करता रहता है। यही 'सेवा' कहलाती है, उसका सोना, दण्डवत् , बोलना, नामजप, सुनना, सुमिरन, खाना-पीना ही पूजा है। अर्थात् सगुणोपासक भक्तशण भगवानुके विग्रहकी परिक्रमा, सेवा, नाम-जप आदि द्वारा जो भक्ति दर्शाते हैं वह सभी सहज समाधिके साधक साधारण अन्चारण द्वारा ही सिद्ध हो जाती है और फिर योगी लोग जिन क्रियाओंसे परम लक्ष्यको प्राप्त करनेक दावा करते हैं वह भी उसे नहीं करनी पड़ती। यह अनायास ही उसे सिद्ध हो जादी हैं। उसे आँखें नहीं हूँदनी पड़त, कष्ट नहीं उठाना पड़ता, खुली आँखसे ही निखिल चराचरमें परिव्याप्त भगवत्सत्ताका साक्षात्कार उसे हो जाता है। यह समाचे आसन मारके नहीं करनी होती, उठते बैठते सब समय यह संभव है। स्पष्ट ही ऐसी समाधि क्हीं लगा सकता है जो असीम विश्व-ब्रह्माण्डमें परिल्याप्त अनन्त सत्ताको सदा सर्वदा अनुभव कर सके। यह ज्ञानका विषय है। कबीरदास इस ज्ञानद्वारा प्राप्त अनुभवैकगम्य समाधिको ही श्रेष्ठ समझते थे। इस ज्ञानकें हैं आनेका कारण माया है। माथासे इद्ध जीव इस जगत्को गलत समझता है, अर्थात् जो नहीं हैं उसकी सत्ता अनुभव करता है और जो है, उसकी सत्ता नहीं अनुभव कर पाती । कबीरदासने बार बार इस मायासे सावधान रहनेको कहा है। सच्चा ज्ञान होनेपर डंडा मुद्रा आदिके धारणकी जरूरत नहीं रह जाती और न कोई भेस्व. धारण करनेकी आवश्यकता होती है । वे उन लोगों को पागल ही समझते हैं जो आसन-मुद्राके कपट-जालमें पड़े हुए हैं, क्योंकि योगीका लक्ष्य यदि भगवत्प्राप्ति हो तो भगवान् तो स्क्यं त्रिभुवनको भोर कर रहे हैं। उनके लिए योग साधने और घर-बार छोड़नेकी तो जरूरत ही नहीं * ।। * डंडा मुद्रा लिथा अदारी । श्रम कै भाई भवै भेखधारी ।। शासन ऐबन दूर कर दौरे ! छोड़ कपद नित इरि भज बौरे ।।