पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/८७

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थोगमार्ग और सल्त-मत शास्त्र लोकमतके सामने झुक रहे थे ! यह साधना-बहुल और क्रिया-क्लिष्ट योगमार्ग भी उधर ही झुक पड़ा था। असलमें इस युगमें लोकमतकी जैसी प्रधानता दृष्ट हुई वैसी सम्पूर्ण भारतीय इतिहास शायद ही कभी दिखी हो । इसीलिए इस युगका साहित्य भारतीय चिन्ताके अध्येताके लिए उपेक्षणीव तो है ही नहीं, अत्यधिक ध्येय है। कवीरदास योग-प्रक्रियाले विरोधी नहीं थे परन्तु हठयोगियोंक इन सभी क्लिष्ट साधनाको आवश्यक नहीं समझते थे ! योगियोंकी कुछ क्रियाक अभ्यास वे नापसंद नहीं करते थे पर उसके सुनी अंको अन्ध भाइसे स्वीकार भी नहीं करते थे कुबीर जैसा उन्मुक्त विचारका अदमी किसी प्रकारको रूढ़ियोंका कायल नहीं हो सकता था । उन्होंने बार बार घोषणा की है कि ए साधुओ, समाधि लगाया चाहते हो तो उंटे और बड़ेमें न पड़ो। सहज-समाधि लगाओ। नाना प्रकार के प्राणायाम, आसन और मुद्राथे परमतत्वकी उपलब्धि साधन हैं, साध्य नहीं। अगर सहज-समाधिके रास्ते ही परम् तव मिल जाता है तो यर्थ ही कायक्लेश बढ़ानेसे क्या फायदा ? आँख मूंदे बिना, मुद्रा किये ब्रुिना, आसन लगाये बिना समस्त ब्रह्माण्डके रूपको देखो और उसके भीतरसे परम तत्वको खोज निकालनेकी चेष्टा करो । जव तुम्हें अनहद नाद सुनाई देगी तो असने और प्राणायामकी जरूरत नहीं रह जायगी, रोम रोम थकित हो जायँगे, समस्त इन्द्रिय लथवन्ध हो रहेंगे, मन आनन्दसे भर जायगा * । यह ॐ सो सहज समाधि चली ।। गुरु प्रताप का दिनसे उपजी दिन दिन अधिक चली ॥ जहँ जहँ डोलों सो परिकरमा जो कछ करों से सेवा । जब सौवां तब करा दण्डवत पूजा और न देवा ।। कहाँ सै नाम सुन सो सुमिरन खॉव-पियों से पूजा । गिरह उजाढ़ एक लम लेख भाव न राखों दूजा ।। आँख न पूँदों कान न रूंघ, तनिक कष्ट नहिं धारा । खुला नैन पहिचानों हँस हँसि, सुंदर रूथ निहारों }} सनद निरंतरसे मन लामा मलिन वासना त्यागी । ऊठने बैठत कबहुँ न छू ऐसी तारी लागी । कह कबीर यह उनमुनि रहनो, सो परगट करि भाई ।। दुख सुखसे कोई परे परम पद तेही पद रहा समाई ॥