पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/८६

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका बिना हठयोग तो क्या, कोई भी योग अग्रसर हो ही नहीं सकता। अब विश्वास किया जाने लगा, कि, सद्गुरु अपनी अंगुलिसे आज्ञा-चक्रको छू दे तो बिना किसी टूटेके सब कुछ सिद्ध हो जाता है। यह नहीं कहा जा सकता कि यह विश्वास ढकोसला था वा गपोड़ियापनका परिणाम था। साथ ही यह भी नहीं कहा जा सकता किं सद्गुरु सचमुच ऐसा कर सकते हैं या नहीं । ये सब बातें साधनाकी हैं। जो लोग यह सब कहते हैं वे ललकार कर कहते हैं कि जमा कर देख लो । इम लोग जो इस विषय सर्वथा अपरिचित हैं, जो केवल पोथी पढ़कर इस साधनाकी बात गलत-सही ढंगसे खुरचकर बटोर लेले हैं, इस विषयमें कोई राय नहीं कायम कर सकते। सच पूछिए तो इस प्रकार विना अनुभव किये राय देना सिर्फ हिंमत ही नहीं है, अन्याय भी है । जो चात प्रस्तुत विषयसे सम्बद्ध है बुद्द इतनी है कि उन दिनों के साहित्यप्त विषयको भूरिशः उल्लेख मिलता है। जब कि हठयोगकी पद्धति क्रिया-बहुल रही होगी उस समय इस पद्धतिका साधक-विरल होना नितान्त स्वाभाविक है। पर जब गुरुकी कृपापर सब कुछ निर्भर किया जाने लगा होगा तो स्वभावतः ही अधिकाधिक लोग सहुरुकी खोजमें लगे रहते होंगे । उनमें सैकड़ों गुरुके निकट सत्पात्र होनेकी आशाले निरन्तर उम्मीदवारी करते होंगे। यह बात तो निश्चय ही उन दिनों भी असंभव ही रही होगी कि हजारोंकी संख्या में लोग सिद्ध योगी हो जायँ । पर साधारण जनताको सहुरुकी कृपाके नामपर आतंकित करनेवाले और उनपर रौब जमानेवाले छोटे मोटे योगियोंकी एक विराई वाहिनी जरूर तैयार हो गई होगी। ऐसा सचमुच ही हुआ था । ऐसे अलख जगानेवाले थोगियोंसे सारा देश सचमुच ही भर गया था । तुलसीदास जैसे शान्त शिष्ट महात्मा भी इन योगियोंकी बाढ़से चिढ़ गये थे। एक जगह, अलख जगानेवाले योगीको फटकारते हुए वे कहते हैं- तुलसी.. अलखई का लखै, राम-नाम लस्बु नीच !” मध्य-युगके सन्तोंकी वाणियोंके अध्ययनसे यह बात और भी स्पष्ट हो जायगा । इस हठयोग और तंत्रवादने इस देशमें गुरुवाका जो विकृत रूप प्रचार किया उसका बंधन अब भी भारतवर्ष काटे नहीं सका है। सुन्तोंकी वाणियोंमें जहाँ बार बार सद्रुकी शरण जानेका उपदेश है वहाँ गुरुकी पहचनिपर बहुत अधिक जोर दिया गया है । हमने देखा है कि इस युगके प्राकालमें अनेकानेक मतवाद, सम्प्रदाय और