पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/७७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अङ्काकी परम्परा इसमें कोई सन्देह नहीं कि हिन्दुओंके भीतर इस युगमें जो विराट् जनआन्दोलन भक्तिवादकै रूपमें अद्धमूल हो चला थे। वह प्राचीन धर्मका आभय लेकर ही चला था। परन्तु शास्त्रगत सूक्ष्म विचारों और पाण्डित्य-प्रवण चिन्ता को प्रभाव उसपर बहुत कम था । इस युग साहित्यने ऐसी बहुत-सी बातों को त्याग दिया था जिनके अभावमें दोनों के भीतर एक बड़ा भारी व्यवधान दिखाई देता है। इस व्यवधानके कारण दो थे । प्रथम तो यह जनआन्दोलनकी अभि युक्तिका साहित्य है, इसलिए इसमें उन रूढ़ियों और परस्पराओंकी चर्चा नहीं मिलती जो शास्त्रीयतासे पुष्ट साहित्य साधारणतः मिल जाया करती है। दूसरे जिस प्राचीन साहित्यके साथ इसकी तुलना की जाती हैं उसके बनने से लेकर इस साहित्यके बननक कालके बीच जो प्रायः आधी सह्लाब्दीका ब्यवेधान पड़ता है, उसे ब्यवधान-युगळे विचारों के विकासके अध्ययनकी चेष्टा नहीं की जाती । यदि इस ब्यवधानकोलिक साहित्यके उस अंशको देखें जिसका सम्बन्ध पण्डित जनसे नहीं बल्कि जन-साधारणसे था तो कोई सन्देह नहीं रह जायगी कि यह साहित्य इस व्यवधान कालिक जनसाहित्यका ही क्रमविकास है। कबीर दासके निर्गुण भजन, सूरदासकै लीला-गान और तुलसीदासका रामचरितमानस अपनी अन्तर्निहित शक्तिकै कारण अत्यधिक प्रचलित हो गये और हिन्दू जनताका संपूर्ण ध्यान अपनी ओर खींचनेमें समर्थ हुए। परन्तु जन-साधारणका एक और विभाग, जिसमें धर्म स्थान नहीं था, जो अपभ्रंश साहित्यके पश्चिमी आकारसे सीधे चला आ रहा था, जो आँवोंकी बैठकोंमें कथानक रूपसे और • गान रूपसे चल रहा था, उपेक्षित होने लगा था 1 इन सूफी साधकाने पैराणिक आख्यानोंके बदले इन लोकप्रचलित कथानकोंका आश्रय लेकर ही अपनी बात जनता तक पहुँचाई । इन कहानियों की परम्परा कुतुबन शेखस आरम्भ होती है जो सोलहवीं शताब्दीकै आरम्भमें उत्पन्न हुए थे । इन्होंने मृगावती नामक कान्य दोहों और चौपाइयों में लिखा । फिर मलिक मुहम्मद जायसी हुए जिन्होंने अपना प्रख्यात काब्य पद्मावत लिखा । फिर उसमानने चित्रावली ( १६१३ ई०), ख नवीने ज्ञानप्रदीप ( १६२० ई०१), कासिमशाहने इंस-जवाहर (१७३१ ६०), नूर मोहम्मदने इन्द्रावती ( १६४४ ) और फाजिलशाहने प्रेम-रतन (१६४८) नामक काय लिखा । सूफी कवियोकी लिखी हुई इन प्रेम-कहानियोंमें बहुत कुछ