पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/७६

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका परिणति भक्ति-आन्दोलनके रूपमें हो चुकी थी । समूचा देश इस सिरे से उसे सिरेतक भक्तिकी रस-माधुरीमें सुनात हो रही थी। सूफियोंकी साधना अनेकांशमें इन सन्तोंके अनुकूल थी। ये साधक अन्यान्य मुसलमानोंके समान कट्टर और विरोधी नहीं थे, इसीलिए भारतीय जनताले विश्वासपूर्वक इनकी साधनाके प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित की। मुईन उहीन (११४२ ई०), कतुबुद्दीन काकी, फरीद शकरगंज (१२०० ई० १ ), शेख चिश्ती (१२९१ ई० ), निजामुद्दीन औलिया (१२३५ ई०), सलीम चिश्ती (१५१२), मुबारक नागोरी ( १५०१ १) अादि सूफी साधकोंने समान भावसे हिन्दू और मुसलमान दोनोंका आदर और विश्वास प्राप्त किया था। बहुतोंकी समाधिपर आज भी इजारोंकी संख्यामें श्रद्धालु हिन्दू और मुसलमान जनता अपनी भक्ति निवेदन करने प्रतिवर्ष जाती है। यह बात कुछ विरोधाभास-सी लगती है कि उन दिनों जव कि हिन्दुओं और मुसलमानोंकी लड़ाइयाँ आम बात थी, किस प्रकार ऐसा मिलन सम्भव हो सका १ मध्ययुग बहुत कुछ करमातको युग था। उस युगके प्रत्येक साधु-सन्तके नामपर दो-चार करामाती किस्से मिले ही जाते हैं। इन करामातीं और उनकी ख्यातिसे लोग परस्पर एक दूसरे की ओर आकृष्ट होते थे। दोनों ज्यों ज्यों निकट ते गये त्यौं त्यों अधिकाधिक अनुभव करते गये कि दोनों में तात्त्विक मतभेद बहुत कम है। कबीर आदि सन्तोंने इस बातपर बहुत जोर दिया। इन्होंने हिदुत्व और मुसलमानत्वके बाह्य उपकरणको हटाकर उनको असली रहस्य पहचाननेकी चेष्ट्री की । मुसलमानोंकी ओर से यह काम प्रेम-कहानियाँ लिखकर सूफी सन्तोने किया । पं० रामचन्द्र शुक्लने कबीर आदि झाड़-फटकारके द्वारा * चिढानेवाले' सिद्ध हुए सन्तोंके साथ उनकी तुलना करते हुए कहा है कि कबीर आदिका प्रयत्न 'हृदय स्पर्श करनेवाला नहीं हुआ। * मनुष्य-मनुष्यके बीच जो रागात्मक संबंध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ । अपने नित्यके जीवनमें जिस हृदय-साम्यका अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतुबन, जायसी आदि इन प्रेमकहानीके कवियों ने प्रेमको शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवनदशाको सामने रखा जिनका मनुष्यमात्रके हृदयपर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू और मुसलमान-हृदयको आमने सामने करके अजनवीपन मिटानेवालोंमें इन्हींका नाम लेना पड़ेगा। इन सोचकोंने हिन्दीमें एक विशेष अरके साहित्यको ढुम होनेसे बचा लिया ।