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अन्कोंक परम्। हमें ठीक नहीं मालूम कि ऐसा कहनेसे रामचरितमानस' का वास्तविक महत्व समझा जा सकता है या नहीं, लेकिन इस बातके कहनेमें किसीको संकोच नहीं होगा कि उत्तर भारतमें दूसरी पुस्तक इतनी लोकप्रिय नहीं है। कवि : रूपमें तुलसीदास हिन्दी साहित्यमें अद्वितीय हैं । आज साहित्यमें मनोविज्ञानको युग चल रहा है पर आज भी हुलसीदासके समान मनोविकारका चित्रण करनेवाला कवि हिन्दीमें नहीं है। पूर्व-काव्यमें तुलसीदास उस स्थानपर पहुँच चुके थे जहासे आगे जाना संभव नहीं । लोक-चित्तका इतना विस्तृत और यथार्थ ज्ञान रखनेवाला कवि अगर लोकमतीपर शासन न करता तो आश्चर्यकी बात थी, शासन करना स्वाभाविक है ।। | तुलसीदास राम-भक्तिके उपासक थे । लोकमें वर्णाश्रम व्यवस्थाके के पक्के समर्थक थे पर उपासनाके क्षेत्रमें जात-पाँतकी मर्यादाको व्यर्थ समझते थे । बायनिक मत उनका शंकराचार्य से मिलता जुलता था, यद्यपि मोक्षकी अपेक्षा के भक्तिको ही अधिक काम्य समझते थे | मरनेके बाद मोक्ष मिलनेसे युगयुगान्तर क्षक भक्ति पाना उनकी इष्टिमें ज्यादा अच्छा था । तुलसीदासमें अपने पति समझ कर भगवान्को सर्वात्मना समर्पण कर देने भावना मध्ययुगके तमाम भक्तों की अपेक्षा अधिक है। यूरोपियन पंडितोंझा अनुमान है कि यह बात ईसाई धर्मका अप्रत्यक्ष प्रभाव हैं । लेकिन हम अन्यत्र दिखा चुके हैं कि यह अनुमान लत है। भागवत धर्ममें ही यह भाव मूल रूपसे वर्तमान था । वल्लभाचार्यकी शिष्य-परंपरामें एक और उल्लेख्योग्य भक्त हो गये हैं । ये हैं अग्रदासजीके शिष्य नाभादासजी। कुछ लोगोंके मतसे ये भी बीच समझी जानेवाली जातियोंसे आये थे । इनका भक्तमाल' और इसपर इनके शिष्य प्रियादासजी की टीका भक्तोंका इिय-हार रही है। तुलसीदासजीकी रामायणके बाद भक्तमाल ही मध्ययुराकी सर्वाधिक लोकप्रिय भक्ति-पुस्तक थी । इसका अनुवाद बंगला और मराठी में भी हुआ । बंगला अनुवादके लेखक श्री लालदासने (किसी किसीके मुतले इनका नाम कुष्यदास था) नाभादासके लगभग सवा सौ वर्ष बाद इस सटीक ग्रंथके अनुवादको लिखा परन्तु चैतन्यदेवळे मलानुयायी होनेके कारण अपने सिद्धान्तोंके समर्थन के लिए उन्होंने एक नया विभाग और जोड़ा । नाभादासजीके भक्तमाल बहुत-से भक्त के जीवनवृक्ष संकलित हुए हैं। इसमें नानक, दाद् आदि भक्तों का नाम नहीं अथिा है । वामें इस ग्रंथके