पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/६९

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"भुक्क पर । ४९ मतवाद और ( ३ ) दक्षिणका बेदान्त-भावित वैष्व धर्म, कजीरके दोहे, पद, यहाँ तक कि उलटाँसिवाँ भी, नाथ-पंथ और सहज-यानके साधकोंके ढंगपर हैं। कहीं कहीं तो हू-ब-हू वही बात रख दी गई है। दूसरी धाराका क्षीय अभाव उनकी प्रेम-मूलक रूपक-रचनायर है पर अन्तिम घारा ही वास्तव कवीरको सदा परिचालित करती रही है साम्प्रदायिक शास्त्र-ज्ञानको अधिक महत्व देनेवाले पण्डितको कभी भी कबरकी उकियोंमें उडुप और ऊटपटॉग बातोंका आभास मिल जाना असंभव नहीं है पर अगर वे श्रीर अवसे विचार करते तो उन्हें मालूम होता कि उस युगके अर्थ-हीन जात-पाँतके ढकोसलोंपर अड़ासे कहा आघांत करनी लोक-पक्षका अमंगल नहीं था । आज भी वह अर्थहीन जंजाल वर्तमान है और आजका महापुरुष भी,चाहे वह कोई हो,—इसपर आघात करने को बाध्य है । लोक-पक्ष, उपासना-पक्ष और शास्त्र-पञ्चकी कृपनासे इम ग्रंथात मतोंका विचार कर सकते हैं, पर वास्तविक समस्या समाधान उससे नहीं हो सकता है। | रैदास कबीरसे अवस्थामें बड़े थे और बहुत निरीह भक्त थे । जीवनकी बहुविध कठिनाइयोंको झेल चुके थे। एक बार ब्रह्म-ज्ञान विष्यमै नीरसे जने पूछा गया तो, कहते हैं, उन्होंने बताया कि मैं बेचा था, की गोदीमें चढ़ कर रास्ता पार कर आया हूँ, रैदाससे पूछो, वे बड़े थे और माँ” उनके सिरपर कुछ शङ्कर भी रख दिया था । वे ही रस्तेको मर्म बता सकते हैं । प्रसिद्ध हैं कि अन्लमें मीराबाईने रैदाससे दीक्षा ग्रहण की थी । । कबीर के पुत्रका नाम कमल था । कबीरकी मृत्युके बाद इनसे संप्रदाय स्थापित करनेको कहा गया पर ये राज़ी न हुए। कहते हैं; इसलिए शिष्योंने चिढ़कर इन्हें * *बीरको बंश ढुवा देनेवाला' कहा । लेकिन कमाल अपने मनपर दृढ़ रहे और अन्त तक कहते रहे कि जिसने अपनी सारी जिन्दगी सुम्प्रदाय-स्थापनाके विरुद्ध युद्ध करनेमें लाई, मैं उसके नामएर सम्प्रदाथस्थापनाका समर्थन नहीं कर सकता । पर अन्त, सम्प्रदायकी स्थापना होकर ही रही । सुरतगोपालने काशीमें और धरमदासने मध्यप्रान्तमें कबीरका सम्प्रदाय स्थापित किया । • कमाल के शिष्य दादू थे । दादूको कुछ लोग मोची, कुछ लोग झुनिया और कुछ लोग सारस्वत ब्राह्मण्य बताते हैं। पं० चन्द्रिकाप्रसाद त्रिपाठी और ओ०