पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/६७

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भकी परम्परा भिन्न भिन्न हैं। वह अद्वैतवादियोंकी धारणाके अनुसार, भगवान्में लीन कभी नहीं होती। इन सम्प्रदायों को हिन्दीके भक्ति-काल्के साहित्यके साथ सीधा सम्बन्ध है। १. श्री सम्प्रदायके प्रवर्तक रामानुजाचार्य शेषनागके अवतार समझे जाते हैं। जैसा कि पहले ही बताया गया है, वे आलवार भक्तों की शिष्य-परम्परा पड़ते हैं। इनकी शिक्षा दीक्षा काञ्चीमें हुई थी । लक्ष्मीने इन्हें जिस मतका उपदेश दिया था, उसीके आधारपर इन्होंने अपने सम्प्रदाथकी प्रतिष्ठा की थी, इसी लिए इस सम्प्रदायको श्री सम्प्रदाय कहते हैं। रामानुजाचार्य मर्यादाके बड़े पक्षपाती थे इनके सम्प्रदायमें खान-पान, आचार-विचार अदिपर बड़ा जोर दिया जाता है। इन्हींकी चौथी या पाँचवी शिष्य-परम्परामें सुप्रसिद्ध स्वामी रामनैद हुए। रामानंद गुरुको नाम राघवानंद था। किसी अनुशासनसंबंधी विषयपर गुस्से मत-भेद हो आनेके कारण इन्होंने मठ त्याग दिया और उत्तर भारतकी ओर चले आये । मठ मामूली सम्पशाली नहीं था। इतनी बड़ी सम्पत्तिको जो सहज ही त्याग सकता था उस आदमीकी स्वतंत्र चिन्ता-शक्तिका अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकती है। सच पूछा जाय तो मध्ययुगकी समुग्ने स्वाधीन चिन्ताके गुरु रामानंद ही थे। प्रसिद्ध है कि भक्ति द्रविड़ देशमें उत्पन्न हुई थी। उसे उत्तर भारत में रामानंद ले आये और कबीरदासने उसे सप्तद्वीप और नवखण्डमें प्रकट कर दिया। सन् १८५७की लिखी हुई रामानुज हरिवरदासकी हरिभक्ति-प्रकाशिका (भक्तमालकी टीका) से जाना जाता है (पृ०८१,८२) रामानंदने देखा कि भगवान्के शरणागत् होकर जो भक्तिके पथमें आ गया उसके लिए वर्णाश्रमका बंधन व्यर्थ है, इसी लिए भगवद्भक्तको खान-पानकी झंझटमें नहीं पड़ना चाहिए। यदि त्रुषिथोंके नामपर गोत्र और परिवार बन सकते हैं तो ऋषियों के भी पूजित परमइवरक नामपर सबका परिचय क्यों नहीं दिया जा सकता है इस प्रकार सभी भाई भाई हैं,सभी एक जातिके हैं । श्रेष्ठता भक्तिसे होती हैं, जन्मसे नहीं, ५ मानद १ भक्ती द्राविड़ ऊपजी, लाये रामानंद । | परगट किया कबीरने, सप्त दीप नव खंड । २ श्री क्षितिमोहन सेन कृत 'भारतीय मध्ययुगेर साधना से उद्धृत ।