पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/६५

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भक्तकी परम्पर ४६ विकासको नहीं सोचते उन्हें आश्चर्य होता है कि ऐसा अचानक कैसे हो गया है। स्वयं डाक्टर ग्रियर्सनने ही लिखा है कि 4 निजलीकी चमकके लमान अचानक इस समस्त पुराने धार्मिक मतों के अन्धकारके ऊपर एक नई बात दिखाई दी। कोई हिन्दू यह नहीं जानता कि यह बात कहाँले आई और कोई भी इसके प्रादुर्भावका काल निश्चित नहीं कर सकता, इत्यादि । स्वयं डा० श्रियसनका अनुमान है कि वह ईसाइयतकी देन है। पर यह बात अत्यन्त उपहासास्पद है। और यह कहना तो और भी उपहासास्पद है कि जब मुसलमान हिन्दु मन्दिरोंको नष्ट करने लगे, तो निराश होकर हिन्दू लोग भजन-भावमें जुट गये । मैंने इन दोनोंका यथाशक्ति अपनी 'सूर-साहित्य' नामक पुस्तकमै खण्डन कर दिया है। यहाँ उन बातों को दुहरानेकी जरूरत नहीं क्योंकि इतःपूर्व हम देख चुके हैं। कि भारतीय चिन्ता स्वभावतः ही इस ओर अग्रसर होती गई है । लेकिन जिस बातको ग्रियर्सनने अचानक बिजली की चमकके समान कैल जाना लिखा है वह वैसी नहीं । उसके लिए सैकड़ों वर्षसे मेघखण्ड एकत्र हो रहे थे। फिर भी उसकी प्रादुर्भाव तो एकाएक हो ही गया । इस एकाएक प्रादुर्भावका कारण विचारणीय रह जाता हैं। पिछले वक्तव्यको समाप्त करते समय इस कारकी ओर इशारा किया गया था । वह कारण था शास्त्रसिद्ध आचार्यों और पौराणिक ठोस कल्पनाओंसे इनका योग होना । थे शास्त्रसिद्ध आचार्य दक्षिके वैष्णव थे। सुदूर दक्षिणमैं आल्वार भक्तोंमें भी ५९ समाचार में माकपूण उपासनापद्धति वर्तमान थी ! अलवार बारह बताये जाते हैं जिनमें कुमसे-कम नौ त ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। ही। इनमें अण्डाल नामकी एक महिला भी थे। इनमें से अनेक भक्त उन जातियों में उत्पन्न हुए थे जिन्हें अस्पृश्य कहा जाता है। इन्हीं लोगोंकी परम्परा सुविख्यात वैष्णव आचार्य श्रीरामानुजका प्रादुर्भाव हुआ । दक्षिण में आजकी भाति ही जाति-विचार अत्यन्त जटिल अवस्थामें था। फिर भी जैसा कि अध्यापक क्षितिमोहन सेनने लिखा है, इस जाति-विचार-शासिल दक्षिण देशमें रामानुजाचार्यने विष्णुकी भक्तिका आश्रय लेकर नीच जातिको ऊँवा किया और दहे। भाषा रचित शठकोपाचार्यके तिरुबेल्लुअर प्रभृति भक्तिशास्त्रको वैष्णवोंका वेद कहकर समाहृत किया । की दृष्टि में सभी समान हैं लेकिन समाजके व्यवहारमें जातिभेद है, इसी िदोनों ओरकी रक्षा करके यह व्यवस्था की गई कि प्रत्येक अभी अल र क्षितिज कर । क्योंकि जाति-पाँतिका सवाल तो पंक्ति