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भक्तों की परम्परा | हमने देख लिया है कि हमारे आलोच्य साहित्यकी अारम्भिक अवस्थामें 'पूर्व और पश्चिमकी भिन्न स्वभाववाली साधनाओं को सम्मिलन बड़े बेगसे हो रहा था। यह एक विराट् जन-आन्दोलन था। दर्शन और धर्मशास्त्रकी सूक्ष्म चिन्तायें इसकी ऊपर ऊपरसे ही प्रभावित कर सकी थीं । हम आगे चलकर देखेंगे कि ऐहिकतापरक या सेक्यूलर काव्यके सम्बन्धमें भी यह युग अपना रास्ता अधिकांशमें स्वयं तै कर रहा था। पूर्वकै सहजयानी और नाथपंथियोंकी साधनामूलक रचनायें तथा पश्चिमकी अपभ्रंशन्धाराकी बीरत्व, नीति और श्रृंगारविषयक कवितायें उस भावी जन-साहित्यकी सृष्टि कर रही थीं जिसके जोड़की साहित्य सम्पूर्ण भारतीय इतिहासमें दुर्लभ है। यह एक नई दुनिया है, और जैसा कि डाक्टर ग्रियर्सनने कहा है, * कोई भी मनुष्य जिसे पन्द्रहवीं । तथा बादकी शताब्दियोंका साहित्य पढ़नेका मौका मिला है उसे भारी व्यवधान { Gap) को लक्ष्य किये बिना नहीं रह सकता जो (पुरानी और नई ) घार्मिक भावनाओंमें विद्यमान है। हम अपनेको ऐसे धार्मिक आन्दोलनके सामने पाते हैं जो उन सब आन्दोलनोंसे कहीं अधिक विशाल है जिन्हें भारतवर्षने कभी देखा है, यहाँ तक कि वह बौद्ध धर्मके आन्दोलनसे भी अधिक विशाल है। क्योंकि इसका प्रभाव आज भी वर्तमान है। इस युगमें धर्म ज्ञानका नहीं बल्कि भावावेशका विषय हो गया था। यहाँसे हम साधना और प्रेमोल्लास (ysticism and raptre) के देशमें आते हैं और ऐसी आत्माओंका साक्षात्कार करते हैं जो काशीके दिग्गज पंडितोंकी जातिके नहीं, अल्कि जिनकी समता मध्ययुगके यूरोपियन भक्त बर्नर्ड ऑफ क्लेयरबॉक्स, मिस ए, केम्पिन और सेंट थेरिसासे है। जो लोग इस युगके वास्तविक