पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/६३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सन्त-मत वहीं कहा है जो इन योगियों और सिद्धौने । मैं केवल इस बातृपर जोर देता रहा हूँ कि जहाँतक उनकी उपस्थापन पद्धति, विषय, भावे,भाषा, अलैकार, छन्द, पद् आदिका संबंध है ये सन्त सौ फी सदी भारतीय परम्परामें पड़ते हैं। उनके पारिभाषिक शब्द, उनकी रूढ़ि-विरोघिद, उनकी खण्डनात्मक ऋत्ति और उनकी अक्खड़ता आदि उनके पूर्ववर्ती साधकों को देन है। परंतु उनकी आत्मा उनकी अपनी है । उसमें भक्तिका रस हैं और वेदान्तका ज्ञान है। इस भरिकरसकी अलोचना इम असे करेंगे । केवल एक सवाल और रह जाता है कि कबीरके पहले भी तो ये बातें वर्तमान थी फिर वे उतनी ही प्रभावशाली ये नहीं हो सकी जितनी कबीर आदिकी बातें हो सकी ? इस बातके कई तरह जवाब दिये गये हैं । परन्तु इसका कारण निस्सन्देह राजनीतिक सत्ता थी । किसी किसी ने कहा है कि मुसलमानोंके आगमनके पूर्व हिन्दू राजा इन तथा कथित नीच आतियोंकी आशा आकांक्षाको पनपने नहीं देना चाहते थे और किसी दूसरेने कहा है कि पहले तो वे छोटी समझी जानेवाली जातियाँ अकेले हिन्दुओंसे ही सताई जा रहीं थीं, अब मुसलमानोंसे भी सताई जाने लगी। इस प्रकार उन्हें अपनी स्थितिको सुधारकर अधिकार प्राप्त करनेके नये प्रयत्न करने पड़े । ये दोनों ही बातें युक्तियुक्त नहीं हुँचती । मेरा विचार यह है कि ऐसी बातें समाजके किसी न किसी स्तर में वर्तमान तो जरूर थीं पर अधिकांशमें उन लोगों द्वारा प्रचारित होती थीं जो शास्त्र और वेदको नहीं मानते थे । फिर जनसाधारणमैं प्रचलित पैराणिक ठोस रूपोंसे उनकी कोई संबंध नहीं था। कबीरदासने गुरु रामानंदसे शिष्यत्वं ग्रहण करके जनसाधारणमें उनकी शास्त्र-सिद्धताका विश्वास पैदा किया और राम नासको अपना कर जन-साधार के परिचत भगवान्से अपने भगवानकी एकात्मता साबित की। उन्होंने रूपकों-द्वारा योगमार्ग, वैष्णव मत आदि अत्यधिक प्रचलित जन्मलकी अपने देंगपर व्याख्या करके जनसाधारणका विश्वास अर्जन कर लिया। इस प्रकार एक बार शास्त्र और लोक-विश्वासको जरा-स-नाम-मात्रका सहीर पाते हैं। यह मत देशके इस सिरेसे उस सिरे तक फैल गया ।