पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/६२

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हिन्दी साहित्य भूमिका है, यदि वह जगद्गुरुकी अनन्त सत्तामैं लौ यो सके तो सहज ही अभिनव लीलाका रसास्वाद कर सके* । इस प्रकारलौ' का अर्थ है चित्तवृतिको अन्यत्रसे हटा कर एक अनन्त प्रेममय भगवृत्सत्ता युक्त करना जाँसे भक्त सदा अपना अभिलषित प्रेम-रस पान करता रहे । यह वही अवस्था है जिसे भागवत गणी अम-बुद्धिमूलक समाधि कहते हैं और जिसकी चर्चा आगे की गई है। इस प्रकारके प्रेममें छके हुए वे सन्त कभी प्रेमको शराब बताते हैं और उस मदसे मस्त बने रहने की बात करते हैं। इस प्रकारके कथनोंक भी सूफ़ी साधनाका प्रभाव सिद्ध करनेकी चेष्टा की गई है। कबीरदास दे सत्संगी जीव थे और अनेक बड़े बड़े सूफी साधकों से उनकी प्रत्यक्ष घनिष्ठता हो। ऐसी अवस्था यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस प्रकारकी बातों में सूफी मतका प्रभाव नहीं ही है । ऐसा प्रभाव होना असेभव नहीं है । पर कबीरदासके पदों के साथ जब उनके पूर्ववर्ती सिद्धोंके पदोंकी तुलना की जाती है तुः इस जासिके पदोंमें आश्चर्यजनक साम्य दिखाई देता है । असल बात तो यह है कि सहजयानमें *मुदिरा'का प्रचलन भी खूब हो चुका था । सिद्ध होग भी एक प्रकारकी मदिराकी चर्चा करते हैं जिसका स्वर हू-ब-हू कबीर जैसा होता है। यह भी ध्यान देनेकी बात है कि ऐसे पदोंमें कबीरदास प्रायः अवधू यो अवधूतको संबोधन करते हैं। कबीरदासका नियम-सा अँधा हुआ था कि जब वे जिस विषयकी बात करते थे, तब उसके विशेष मान्य आचार्यको संघन करते थे । वेदकी बात करते समय पंडितको, कुरानकी बात करते समय मुल्लाको, भक्तिकी बात करते समय साधुको वे प्रायः पुकार लेते थे। सेोधन करने के बाद प्रायः उनके पदोंमें संबोध्यकी विद्याकी नई भ्याख्या बताई जाती है और उसकी रूढ़ियोंपर आघात किया जाता है। ऐसी अवस्थामै मदिराके रूपकॉमें अवधूतको पुकारनेक विशेष अर्थ है। वह अवधूतकी ही मदिराकी नई व्याख्या है। सूफी साधकोंकी चीजकी व्याख्या नहीं। पर यह हो सकता है कि इस नई व्याख्यामें सूफी साधनाकी बात भी अप्रत्यक्ष रूपसे आ गई हो। अब तक जो हमें कबीर आदि साधकों, योगियों और सिद्धोंकी बात करते आ रहे हैं उसका यह अर्थ नहीं है कि मैं सिद्ध करना चाहता हूँ कि कबीर अदिने

  • जहाँ जगतगुरु रहत है, तहाँ जो सुरति समाइ । . तौं इन नैनेहु ठलट करे, कौतिक देखे आइ ।