पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/६०

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४० हिन्दी साहित्यकी भूमि . प्रेमपर इन सन्तोंने इतना अधिक जोर दिया है कि भक्तके बिना भगवान्को भी अपूर्ण बताया है । यह भावना केवल ज्ञानगम्य ब्रह्मको आश्रय करके नहीं चल सकती । भक्तरूपी प्रियाके लिए भगवानुरूपी प्रिंयके सदी व्याकुल रहनेकी कल्पना निर्गुण और निरासक्त ब्रह्मको आश्चय करके नहीं चल सकती, प्रेमके इस रूपके लिए एक सैसक्त और व्यक्तिगत भगवान्की. पूर्व कल्पना नितान्त आवश्यक है। यदि इन्हें विशुद्ध ज्ञानमार्गी मान लिया जायगा तो उक्त वात अबोध्य हो जायगी । जिन पाडतोंने इन संतोंको ज्ञानाश्रयी कहा है वे सचमुच इस चक्करमें पड़ गये हैं और तात्विक हधिसे विचार करने जाकर यह कहनेको बाध्य हुए हैं कि न तो हमें इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते हैं और न एकेश्वरवादी -पं० राम्चंद्र शुक्ल } } परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि ये सावक अपने विचारोंमें स्पष्ट नहीं थे। इनकी प्रेम-साधना साधारणतः निम्नलिखित आकारॉमें प्रकट हुई है-- | (१) भगवान्को अन्तरमें ही रखना चाहिए, बाहर प्रदर्शन करनेपर वह दिखानेकी चीज़ हो जाता है । (२) इस रसको जिसने पाया है वही जला है। (३) इस प्रेम-लीलामै भक्तके, समान ही भगवान् भी उत्सुक हैं । (४)जिसने प्रेमके क्षेत्रमैं भगवान्को योग पाया है वही वास्तवमै योगी है। (५) इस प्रेमकी ज्वालामें जल कर ही भगवानुने अनाहत संगीतकी तरह इसे सुंदर सृष्टिकी ३चना की है।( ६ ) पवन, जल, आकाश, धरती, सूर्य चंद्र ये सभी भगबाके प्रेमकै रूप हैं । इत्यादि । मके इस असीम आनंदको प्रकट करनेके लिए इन साधकोंमें एक पारि भाषिक शब्द प्रचलित है-सुबद या शब्द। यह शब्द भी बहुत पुराना है और नाना मतमें नाना रूप ग्रहण कर चुका है । निर्गुणिया सृन्तके मतसे यह सारा विश्व ‘सबद' में बँधा है ! सबदके इस अनादि संगीतकी तानको ‘सुरति' और साल और लयको निरति' कहते हैं। सुरति और निरति मिल कर ही सबको 'पूर्ण करते हैं । सुर असीम है, ताल ससीम् । तालसे नँध कर ही सुंर रूपपरिग्रह झरता है, नहीं तो इसे उसै अनुभव नहीं कर सकते । असीम परमात्मा भी सुरति निरतिके सुर-तालमें बँध कर अपनेको प्रकट करता है। जहाँ कहीं अविभव है, रूपकी अभिव्यक्ति है वहीं सीमा और असीमका योग है। गति असीम है पर जब वह नृत्य आदिका रूप धारण करती है तब समझना चाहिए कि उसकी योर पसंचार आदिकी सीमाके साथ हुआ है । इसी लिए यह सार