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निवेदन

'विश्वभारती' के अहिन्दी-भाषी साहित्यिकोंको हिन्दी साहित्यका परिचय कराने के बहाने इस पुस्तकका आरंभ हुआ था। बादमें कुछ नये अध्याय जोड़कर इसे पूर्ण रूप देनेकी चेष्टा की गई है। मूल व्याख्यानोमसे ऐसे बहुतसे अंश छोड़ दिये गये हैं जो हिन्दी-भाषी साहित्यिकोंके लिए अनावश्यक थे। फिर भी इस बातका यथासंभव ध्यान रखा गया है कि बाधा न पड़े। इसके लिए कभी कभी कोई कोई बात दो जगह भी आ जाने दी गई है। ऐसा प्रयत्न किया गया है कि हिन्दी साहित्यके सम्पूर्ण भारतीय साहित्यसे विछिन्न करके न देखा जाय । मूल पुस्तक में बार बार संस्कृत पाली, प्राकृत और अपभ्रंशके साहित्यकी चची आई है, इसी लिए कई लंबे परिशिष्ट जोड़कर संक्षेपमें वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्योंका परिचय करा देनेकी चेष्टा की गई है। रीति-काव्यकी विवेचनाके प्रसंगमें (पृ० ११९ पर ) कविप्रसिद्धियाँ और स्त्री-अंगके उपमानोंकी चर्चा पाई है ) मध्यकालकी कविताके साथ संस्कृत कविताकी तुलनाके लिए आवश्यक समझकर परिशिष्टमें इन दो विषयोंपर भी अध्याय जोड़ दिये गये हैं।

श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने जिस प्रेम और उत्साहसे इस ग्रंथको छापा है उसके लिए लेखक उनका सदा कृतश रहेगा। प्रेमीजीने प्रेम-पूर्वक इसे सुंदर रूपमें उपस्थित ही नहीं किया है, आवश्यक स्थानोंपर परिवर्तन-परिवर्धनकी भी बातें सुझाकर पुस्तकको अधिक त्रुटियुक्त होनेसे बचा लिया है ।

बौद्ध साहित्यवाले अध्यायमें प्रो. विंटरनित्स, पं० विधुशेखरशास्त्री और श्री वेणीमाधव बाडुाआके लेखोंसे बहुत सहायता मिली है। पुस्तक जब प्रेसमें थी तब श्री भदन्त आनन्द कौसल्यायनने भी इसके एक अंशकी आलोचना करके लेखककी सहायता की है। शान्तिनिकेतनके पाली और संस्कृतके अध्यापक पंडित-प्रवर श्री नित्यानन्द दिनोद गोस्वामीने इसे देख लिया था और आवश्यक सुधार सुझाये थे। इन बातों के लिए लेखक सभीका अत्यन्त कृतज्ञ है।