पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/५९

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सन्त-भेत यह शून्य शब्द बहुत मनोरंजक है । बौद्ध महायान दार्शनिककी दो शाखायें हैं। एक मानती है कि संसारमें सब कुछ शून्य है, किसीकी भी ससा नहीं और दूसरी शाखाबाले मानते हैं कि जातिके सभी पदार्थ बाह्यतः असत् हैं पर चित्के निकट सभी सत् हैं । एकको शून्य-वाद कहते हैं और दूसरीको विज्ञान-वाद । नागार्जुनने शून्यकी व्याख्या करते हुए कहा है कि इसे शून्य भी नहीं कह सकते, अशून्य भी नहीं कह सकते और दोनों (शून्य और शून्य ) भी नहीं कह सकते । फिर यह भी नहीं कह सकते क्रि वई शून्य भी नहीं है और अशून्य भई नहीं है। इसी भावकी प्रज्ञप्तिके लिए शून्यताझा व्यवहार होती हैं--- शुन्यमिति न वक्तव्यम् अन्यानति वा भवेत् । उभयं नेभयं चेति, प्रज्ञप्त्यर्थं तु कश्यते । इस प्रकार यह सिद्धान्त बहुत कुछ अनिर्वचनीयता-वादका रूप ग्रहण कर लेता है। महायान मतकी प्रज्ञापारमिताओंकी थका देनेवाली पुनरुक्तियोंमें बारबार यही दुहराया गया है कि वह यह भी नहीं हैं, वह भी नहीं है « । वह शून्यवाद इतना प्रचलित हुआ कि उस युगके सभी साधक इस शून्यकी प्रयोग करने लगे । सबने अपने अपने मतानुकुल अर्थ किये ! थोगियोंके घचक्रके सबसे ऊपरी चक्रको शून्य-चक्र या सहस्रदले पद्म कहते हैं । इस प्रकार योगिने भी शून्यको ही परम लक्ष्य माना है और उसका अर्थ बदल करे । कबीरदास आदि निर्गुण मतके साधकॉने भी इस शब्दको व्यवहार अपने अपने ढंगपर किया हैं। अध्यापक क्षितिमोहन सेनने दादूकी अनेकानेक वाणियोंकी जाँच करनेके बाद देखा है कि दादुका शून्य ‘कुछ नहीं तो है ही नहीं, अधिकन्तु, वह पूर्ण सरोवर' *आत्मा-सरोवर' और 'हरि-सरोवर' है। दादूके टीकाकारोंने कहीं शून्य शब्दका अर्थ शान्त निर्वाण पद किया है और कहीं लय लीन समाधिकी अवस्था । इस विषयमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि शास्त्रज्ञानसे वंचित होने पर भी इस श्रेणीके साधक बहुश्रुत थे । इस बृहश्रुतताकै कारण वे अनायास ही अनुभवसम्मत सत्युको संग्रह कर सकते थे। इसी लिए उनका मत न तो किसी आवायें विशेषके मतका हू-ब-हू उल्था है और न बेसिर-पैरकी बातोंकी बेमेल खिचड़ी । सभी विषयोंमें उनका आत्मोपलब्ध मत है । वेदान्तियोंके निर्गुण ब्रह्म उनके उपास्य नहीं हैं क्योंकि उन्होंने एकाधिक बार में गुणको आरोद किया है।

  • देखिए, परिशिष्टः बौद्ध साहित्य ।