पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/५६

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हिन्दी साहित्यकी भूमिक? उस स्थानपर विश्राम कर सकते थे जो संप्रदायसे अतीत है, जहाँ अल्लाह और रामकी गम नहीं। वे साधनाको सहज भावसे देखना चाहते थे। वे नही चाहते थे कि प्रतिदिनके जीवनके साथ चरम साधनाका कहीं भी विरोध हो । दैनिक जीवन और शाश्वत साधनाका यह जो अविरोध भाव है वही कबीरका ‘सहज पंथ' है। उनके युगमैं यह शब्द बहुत प्रचलित था। जैसे आजकल 'संस्कृति शब्द' बहुल प्रचारके कारण कुछ सस्ता हो गया है वैसे ही उन दिनों ' सहज शब्द भी सस्ता हो गया था। लोग गली कूचे ‘सहज-सज' कहते फिरते थे। इस शब्दकी व्याख्या भी निश्चय ही नानी भाँतिसे की जाती रही होगी । कबीरदास इससे चिढकर एक जगह कहते हैं कि ‘सज-सहज’ तो सभी कहते हैं पर सहेजको पहचाना किसीने नहीं। सहज उसीको कह सकते हैं जो सहज ही विषयका त्याग कर सके। इसके लिए घर-बार छोड़नेकी जरूरत नहीं । सम्प्रदायप्रथित बह्याण्डम्बरकी भी कोई आवश्यकता नहीं। और जैसा कि प्रसिद्ध साक रज्जने कहा हैं, योगमें भी भोग रह सकता है और भोगम भी योग हो सकता है ! वैरागी भी डूब सकते हैं और गृहस्थ भी तर सकते हैं । इस प्रकार यह सहज पंथ * सह्जयान' नामक संप्रदाय विशेषसे एकदम भिन्न है । इसी तरह जब कबीर 'शून्य' शब्दका व्यवहार करते हैं तो कुछ नहीं ? कै अर्थमें कभी नहीं करते । भला जो कुछ नहीं है उसका नाम ही क्या हो सकता है ? उस कुछ नहीं' का जो कुछ भी नाम दिया जायगा वह, दादू दयालने ठीक ही कहा है, कि झूठ होनैको बाध्य है । १ सूर नर मुनिजन औलिया, ए सब उरली तर । अरूह रामक गम नहीं, तह चर किया कबीर । २ सहज सहज सव ही कहे, सहज न छीन्है कोइ । जिन स विषया तुजी, सहज कहीजे सोइ ।। ३ पक जॉगर्ने भोंग है, एक भोग जोग ।। इक बड़हिं वैरागमें, इक तराई सो गृही लोग ।। ४ कुछ नाहींका नाँव क्या, जे धरिये से झूठ । और कुछ नाहाँका नांव धरि, भरमा सब संसार । साँच झूछ समझ नहीं, ना कुछ किया विचार ||--दादू