पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/५४

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३८ हिन्दी साहित्यकी भूमिक उस स्थानपर विश्राम कर सकते थे जो संप्रदायसे अतीत है, जहाँ अल्लाह और रामकी गम नहीं। वे साधनाको सहज भावसे देखना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि प्रतिदिनके जीवनके साथ चरम साधनाका कहीं भी विरोध हो । दैनिक जीवन और शाश्वत साधनाका वह जो अविरोध भाव है वही कधीरका ‘सहज पंथ' है। उनके युगमें यह शब्द बहुत प्रचलित था। जैसे आजकल ‘संस्कृति शब्द बहुल प्रचारके कारण कुछ सस्ता हो गया है वैसे ही उन दिनों * सहज ” शब्द भी सस्ता हो गया था। लोग गली कूचे ‘सहज-सहज' कहते फिरते थे । इस शब्दकी व्याख्या भी निश्चय ही नाना भाँतिसे की जाती रही होगी । कबीरदास इससे चिढ़कर एक जगह कहते हैं कि 'सहज-सहज’ तो सभी कहते हैं पर सहज को पहचाना किसीने नहीं । सहज उसीको कह सकते हैं जो सहज ही विषयका त्याग कर सके। इसके लिए घर-बार छोड़ने की जरूरत नहीं है। सम्प्रदायप्रथित बह्याण्डम्बरकी भी कोई आवश्यकता नहीं। और जैसा कि प्रसिद्ध साधक रज्जबने कहा है, योगमें भी भोग रह सकता है और भोगम भी योग हो सकता है! वैरागी भी डूब सकते हैं और गृहस्थ भी तर सकते हैं। इस प्रकार यह सहज पंथ * सहजयान' नामक संप्रदाय विशेषसे एकदम भिन्न है । इसी. तरह जुब कबीर 'शून्य' शब्दको व्यवहार करते हैं तो कुछ नहीं' के अर्थ कभी नहीं करते । भला जो कुछ नहीं है उसका नाम ही क्या हो सकता है ? उसे कुछ नाही ' का जो कुछ भी नाम दिया जायगा वह, दादू दयालने ठीक ही ऋहा है, कि झूठ होनेको बाध्य है । १ सूर नर मुनिजन औरैया, एसब उरली तीर । | अलह रामक गम नहीं, तई घर किया कबीर ।। २ सहज सहज सत्र ही कहे, सहज न चीन्है केइ । | जिन सहॐ विषया तजी, सहज कहीजै सोइ । ३ एऊ जॉगमें भोग है, एक भोगमें जोग । क बड़हिं वैरागमें, इक तरह सो गृही लोग ॥ ४ कुछ नाहींका नाँव क्या, जो धुरिये से झूठ । और कुछ नाहींका नांव धरि, भरमा सब संसार । साँच झुछ समझे नहीं, ना कुछ किया विचार ।दादू.