कबीरदास आदि साधकोंने नाथपंथियों और सहजयानियोंके बहुतसे शब्द,
पद और दोहे ज्योके ल्यों स्वीकार कर लिये थे ★। इनमें यत्र तत्र नाम मात्रके
परिवर्तन भी हैं। इस प्रकार यह बात स्पष्ट है कि कबीर, आदिने अनेक बातें
पूर्ववर्ती साधकोंसे ग्रहण की थीं, फिर भी कबीरकी साधना वहीं नहीं थी जो इन
योगियों या सहजयानियोंकी थी। कबीर आदिने योगियों और सहजयानियों के
पारिभाषिक शब्दोंकी अपने ढंगपर व्याख्या की । जिस प्रकार वैष्णव शास्त्रोंसे
गृहीत होकर भी उनके राम' दशरथ-सुत' नहीं थे, ठीक उसी प्रकार उनका
सहज शून्य, षट्चक्र, समाधि, इड़ा, पिंगला आदि भी सहजयानियों और
योगियोंके इन्हीं शब्दोंसे भिन्न अर्थ रखते थे । इतना ही नहीं सूफियोंकी साधनासे
गृहीत शब्दोंकी भी उन्होंने अपने ढंगपर व्याख्या की थी, क्योंकि वे किसी
शास्त्रविशेष या सम्प्रदाय विशेष के संस्कारोंसे जकड़े हुए नहीं थे और जैसा कि
दादूने कहा है, कबीरदासने निर्गुण ब्रह्मकी समाधिके विषय में मुसलमानोंका रास्ता
छोड़ दिया था और हिन्दुओंके कर्मकलापसे भी अलग हो गये थे×। वे सहज ही
★ अध्यापक क्षितिमोहन महाशयने नाथ-योगियोंमें प्रचलित तथा दादू दयालके संग्रहोंमें प्राप्त ऐसे कुछ पदोंको संग्रह किया है। यथा,
नाथयोगियोंके पद--उठ्या सारन् बैठ्या सारन् जागत सूता।
तिन भुबने बिछाइना जाल कोइ जाबिरे पूता॥
दादूका पद--उठ्या सारं बैठ विचारं संभारं जागता सूता।
तीन लोक तत जाल विडारन कहाँ जाइगा पूता॥
योगियोंका (मायाका धाम )--उठ्या मारुम बैठ्या मारुम मारुम जागा सूता।
तीन धाम काम जाल विछाइम कोइ जाबि रे पूता॥
दादूका ( माया वाक्य )--उठ्या मारूं बैठ्या मारूं मारू जागत सूता।
तीन भवन भगजाल पसारूं कहां जायगा पूता॥
योगियोंका (गोरखनाथका उत्तर)-उठ्या खंडुम बैठया खंडुम खंडुम जागत सूता।
तीन भुवने खेलुम आलग तयतो अवधूता॥
दादूका एद--ऊमा खंडूंँ बैठा खंडूंँ, खंडूँ जागत सूता।
तीन भुवनते मिन है खेलू तो गारेख अवधूता॥
निर्गुण ब्रह्मको कियो समाधू)। तब ही चले कबीरा साधू।
तुर्ककी राह खोज सब छाड़ी। हिन्दूके करनीते पुनि न्यारी--दादू