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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


भक्तोंके ऐसे अनेक पद मिलते हैं जो कई सन्तोंके नामसे प्रचलित हैं। जो पद कबीरके नामसे चल रहा है वही दादूके नामसे, फिर वही रैदास या अन्य किसी साधकके नामसे भी। ऐसे पदोंके विषयमें समझना चाहिए कि ये पद पूर्ववर्ती साधकों के अनुभव हैं जिन्हें परवर्ती साधक या साधकोंने भी स्वीकार कर लिया है। ये भक्त कविता करने के लिए पद नहीं लिखा करते थे इसीलिए इनमें उस प्रकारकी सावधानीका अभाव है जो कवि अपनी रचनाके अभिनव चमत्कार प्रदनके लिए अत्यावश्यक समझता है । कबीरदासको यह साखी सहजमतके आचार्यकी याद दिला देती है.—

जिहि बन सीह संचर, पेखि उट्टै नहिं जाय।
रैनि दिवसका गम नहीं, तहँ कबीर रहा लो लाइफ।।

सरहपादकी साक्षी है-

जेहि मन पवन न संचरइ, रवि शशि नाह पवेश !
तहि बट चित्त विशाम करु, सरहे कहिअ उमेश ॥

असलमें साखी ( साक्षी) का मतलब ही यह है कि पूर्वतर साधकों की बात- पर कबीरदास अपनी साक्षी या गवाही दे रहे हैं । अर्थात् इस सत्यका अनुभव वे भी कर चुके हैं। जो लोग कबीरदासको साधक न समझकर केवल कवि समझना चाहते हैं वे प्रायः कुछ ऐसी उल्टी सीधी बात कर जाते हैं जो उनके पाण्डित्यके लिए शोभाजनक नहीं होती। कभी कभी हास्यास्पद भावसे कबीरदासको शास्त्रज्ञानहीन, सुनी सुनाई बातोंका गढ़नेवाला आदि कह दिया जाता है, मानो उस युगमें जुलाहे, मोची, धुनिये और अन्यान्य नीची कही जानेवाली जातियों के लिए शास्त्र और वेदका दरवाजा खुला था और कबीरदास आदिने जान बूझकर उनकी अवहेलना की थी ! सच पूछा जाय तो शास्त्रज्ञान, तत्वज्ञानके मार्ग में सब समय सहायक ही नहीं होता और कभी कभी तो उस युगकी तथोक्त नीच जातियोंमेंसे आये हुए महापुरुषोंका शास्त्रीय तर्कजालसे मुक्त होना श्रेयस्कर जान पड़ता है। इन संस्कारोंसे वंचित रहने के कारण ही वे सब जगहसे सहज सत्यको सहज ही ले सकते थे। वे रूढ़ियों और मिथ्या विश्वासके शिकार नहीं हुए। वे उस में मतलबकी निजत्व-बुद्धिके भी शिकार नहीं हुए जो दूसरोंकी लिखी हुई बातको तोड़ मरोड़कर कहने में दूसरोंके ग्रहण करनेके महादोषसे अपनेको मुक्त समझती है। उनमें ग्रहण करनेकी भी शक्ति थी, और कराने की भी शक्ति थी इसी लिए वे महान् थे।