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सन्त-मत
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असल में, जैसा कि भट्टाचार्य महाशयने सिद्ध कर दिया है, वेदों और उपनिष- दोंमेंसे भी ऐसे उदाहरण खोजकर निकाले जा सकते हैं जब कि सन्धाभाषा जैसी भाषाके प्रयोग मिल जाया करते हैं । परन्तु बौद्ध धर्मकी अन्तिम यात्राके समय यह शब्द अत्यधिक प्रचलित हो गया था और जनसाधारणपर इसका प्रभाव भी बहुत अधिक था । यही कारण है कि उस युगके सभी कवि किसी न किसी रूपमें इन विरोधाभासमूलक उलटबाँसियोंकी रचना करते रहे। श्रीराहुल सांकृत्यायनने यह पहले ही कहा है कि सन्त कवियोंकी उलटबासिबों- पर सिद्धोंका प्रभाव है । एक अन्य विद्वान्का कहना है कि सहजयानियोंकी संधा भाषा और सन्तोंकी उलटवासियोंमें बड़ा अन्तर है। सन्तोंका उद्देश्य विरोधाभासको अप्रकृत करके उसके अन्तर्निहित महान् अर्थको प्रकृत बनाना है, पर सिद्धोंका ऐसा नहीं है। इसीलिए, सिद्धोंकी वाणियाँ, उक्त विद्वानके मतसे बादमें चलकर विकृत अर्थ उत्पन्न करनेका कारण हुई । मुझे इस भेदारोपमें कोई विशेषता नहीं दिखती । असल में सहजयान और वज्रयानमें कुप्रवृत्तियोंका प्रवेश इसलिए नहीं हुआ कि संधाभाषामें उनकी वाणियाँ कही गई थीं। अद्वय वनकी टीकासे साफ जान पड़ता है कि इन सिद्धोका उद्देश्य भी वही था जो सन्तोंका था । काल-भेद, व्यक्ति-भेद और अवस्था-भेदके कारण जो भेद स्वाभाविक हैं वही भेद इन दोनों में हैं । सूरदासके दृष्टकूटों के विषयमें भी यही बात ठीक है । वह भी एक तरहके संधावचन या उलटबाँसी है । बहुत संभव है कि कबीरदास आदिकी पुस्तकोंमें जो ऐसी रचनायें मिलती हैं वे पूर्ववर्ती साधको और भक्तोंकी रचनायें ही हों और बादमें इन कवियों के नामसे चल पड़ी हों। वस्तुतः यह बात केवल अनुमान या अटकल नहीं है। कबीरदासके नामपर यह उलटबाँसी बहुत अधिक प्रचलित है-" कबीरदासकी उलटी बानी। बरसे कंबल भीजै पानी ॥” स्व. डा. पीतांबरदत्त बड़थ्वालने 'गोरख-बानी' नामक जो संग्रह प्रकाशित कराया है उसमें गोरखनाथके नामपर यही उलट बाँसी इस प्रकार मिलती है---" नाथ बोले अमृत वाणी । बरिसैगी कंबली भोजैगा पांणी ॥” (पृ० १४१ )। इस प्रकारके अनेक उदाहरण दिखाये जा सकते हैं।

इसी प्रकार पण्डितमण्डली जिन बातोंके लिए कबीरदासको घमंडी समझती है वे भी किसी न किसी रूपमें प्राचीनतर आचार्योंसे परम्परया प्राप्त हुई थीं और बहुत-सी बादमें शिष्योंने कबीर आदिके नामपर चला दी हैं । मध्ययुगके