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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


खूब प्रचलित थीं। बंगाल में मुसलमान नामधारी योगियोंकी लिखी हुई पोथि- योमें ऐसी उलटबाँसियोंकी भरमार हुआ करती है। तत् तत् सम्प्रदायवाले इन उलटबाँसियोंका अर्थ भी कर लिया करते थे। सहजयानियों में इस प्रकारकी भाषाका नाम 'सन्ध्या भाषा' प्रचलित था★ । म०म० हरप्रसाद शास्त्रीके मतसे सन्ध्या भाषाका मतलब ऐसी भाषासे है जिसका कुछ अंश समझमें आये और कुछ अस्पष्ट दिखे पर ज्ञानके दीपकसे जिसका सब कुछ स्पष्ट हो जाय । इस व्याख्या सन्ध्या शब्दका अर्थ साँझ मान लिया गया है और यह भाषा अन्ध- कार और प्रकाशके बीचकी सन्ध्याकी भाँति ही कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट बताई गई है। परंतु ऐसे बहुतसे विद्वान् हैं जो उक्त भाषाका यह अर्थ नहीं स्वीकार करना चाइते। एक पंडितने अनुमान भिड़ाया है कि इस शब्द का अर्थ संधि-देशकी भाषा है । संघि-देश भी इस पंडितकी अनुमितिके अनुसार, वह प्रदेश है जहाँ बिहारकी पूर्वी सीमा और बंगालकी पश्चिम सीमा मिलती है। यह अनुमान स्पष्ट ही बेबुनियाद है क्योंकि इसमें मान लिया गया है कि बिहार और बंगालके आधुनिक विभाग सदासे इसी भाँति चले आ रहे हैं ! म० म०प० विधुशेखर भट्टाचार्य महाशयका मत है कि यह शब्द मूलतः 'सन्धा' भाषा है और इसका अर्थ अभि संधिसहित या अभिप्राययुक्त भाषा है। आप 'सन्धा' शब्दको संस्कृत संधाय (अभिप्रेत ) का अपभ्रष्ट रूप मानते हैं । बौद्धशास्त्रके किसी किसी वचन- विशेषने आगे चलकर सहजयान और वज्रयानमें यह रूप ग्रहण किया है ।


★ इस भाषाकी एक उलटबाँसीका उदाहरण ढेण्डणपादकी रचनासे दिया जा रहा है-

टालत भोर धन ना हि पड़देवी ( टलत मोर घर नाहिं पड़ोसी)
हाड़ीति मात नाहिं नित आवेशी। (हाड़ीमें भात नाहिं नित आवेशी)
बेंग संसार बहिल जाअ। (बिना अंग संसार बढ़ा जाय)
दुहिल दुधु कि बेण्टे षामाय । ( दुहा दूध कि बॉट समाय)
जलद बिआपल गबिया बाँझे । (बैल बियाया गैया बाँझ)
पिटा दुहिए ए तिना साँझ । ( पीठमें दुहा इतनी साँझ)
जो सो बुधी सो धनि बुधी ( जो सो बुद्धि धन्या बुद्धि )
जो सो चौर सोइ साधी ( जो सो चोर सोइ साधु)
निते निते षियाला सिंह षम जूझय । (नित नित स्यार सिंहसों जूझै)

ढेढर पाएर गति विरले बूझय । ( ढेण्ढणपादका गीत बिरला बूझै)