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सन्त-मत
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कहते हैं---ये शिव (ईश्वर) के भक्त शरीरमें राख मलते हैं, सिरपर जटा धारण करते हैं, दिया जलाकर घरमें बैठे रहते हैं और ईशान कोणमें बैठकर घंटा बजाया करते हैं, आसन बाँधकर आँख मूंदा करते हैं और लोगोंको नाहक धोखा देते हैं । अनेक रण्डी मुण्डी और नाना वेशधारी इन गुरुओंके मतमें चलते हैं। लेकिन जब कोई पदार्थ है ही नहीं, जब वस्तु वस्तु ही नहीं है तो ईश्वर भी तो एक पदार्थ ही है, वही कैसे रह सकता ? इत्यादि !★ इसी प्रकार ये साधक अन्यान्य मतोंका भी खण्डन करते और अपने मतोंका स्थापन करते रहते थे। इन खण्डनोंका स्वर एकदम वही है जो कबीरदासका । अन्तर इतना ही है कि कबी- रके युगमें अवस्था और जटिल हो गई थी। उन्हें मुसलमानों, हिन्दुओं, योगियों और इन सिद्धों और साधकों सबसे एक एक हाथ लड़ लेना था। कबीरके निर्गु- णमतवादी साधकों की परम्परामे जो दादू, सुन्दरदास आदि भक्त हो गये हैं उन्होंने स्पष्ट ही नाथपंथी योगियों, विशेष कर आदिनाथ, मत्स्येंद्रनाय, गोरखनाथ तथा चौरासी सिद्धों, विशेषकर काणेरी, चौरङ्गी, हाडिफा आदिको अपने मतका आचार्य माना है। सहजयानी सिद्धों और नाथपन्थी योगियोंका अक्खड़पना कबीरमें पूरी मात्रामें है और उसके साथ ही उनका स्वाभाविक फक्कड़पन मिल गया है । इस परम्परागत अक्खड़पन और व्यक्तिगत फक्खड़पनने मिलकर कबीरदासको अत्यधिक प्रभावशाली और आकर्षक बना दिया है।

एक बात लक्ष्य करनेकी यह है कि हिन्दी साहित्यके आदि प्रवर्तक तीन महाकवियों-चन्द, कबीर और सूरदास,-मेंसे सबके सब एक विचित्र प्रकारकी पद रचना करते रहे । इन्हें दृष्टकूट, उलटवासी या विपर्यय कहते हैं । सूरदासके ग्रंथोंमें इन्हें दृष्टकूट और कबीरकी वाणीमें उलटबाँसी कहा है । चंदके रालोमें भी ऐसे दृष्टकूट मिल जाया करते हैं। जिन उलटबाँसियोंके लिए कबीरदास बहुत बदनाम किये गये हैं और साहित्यिक महारथियों के आक्षेप-वाणोंके शिकार होते रहे हैं उनमें कितनी उनकी अपनी रचना है और कितनी पूर्वतर साधकोंसे गृहीत और कितनी भक्तोंद्वारा उनके मत्थे आरोपित हैं, यह निश्चय करना मुश्किल है । लेकिन इस बातमें कोई सन्देह नहीं कि इस प्रकारको उलटबाँसियाँ उस युगमें नाथपन्थी योगियों और सहजयानियों में


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