धर्मके प्रचारके हथखेडे हैं और कुछ लोग मुसलमानी आदर्शके प्रति कबीरदासकी
बाहरी निष्ठाका प्रमाण इन्हीं बातोंमें बताते हैं। यह युक्तियाँ कुछ जँचती-सी :
नहीं जान पड़ती ! जाति-वर्णके भेदसे जर्जरीभूत इस देशमें जो कोई भी
महासाधक आया है उसे यह प्रथा खटकी है । ऐसे बहुतसे प्राचीन ग्रंथ हैं
जिनमें जाति-भेदको उड़ा देनेपर जोर दिया गया है । पर संस्कृतकी पुस्तकें
साधारणतः ऊँची जातियों के लोगों द्वारा लिखी गई होती हैं जिनमें लेखक
केवल तटस्थ विचारकी भाँति रहता है। स्वयं नीचे कहे जानेवाले वेशमें
उत्पन्न नहीं होने के कारण उनमें भुक्त-भोगीकी उग्रता और तीव्रता नहीं होती।
सहजयान और नाथपंथके अधिकांश साधक तथा-कथित नीच जातियों में
उत्पन्न हुए थे, अतः उन्होंने इस अकारण नीच बनानेवाली प्रथाको
दार्शनिककी तटस्थताके साथ नहीं देखा । कबीरदास आदिक विषयमें भी
यही बात ठीक है। फिर भी उच्चवर्णके लोगोंने सदा तटस्थताका ही अवलम्बन
नहीं किया। कभी कभी उन्होंने भी उग्रतम आक्रमण किया हैं। अश्वघोष
( कालिदासके भी पूर्ववर्ती ) कविकी लिखी हुई वज्रसूची एक ऐसी ही :
पुस्तक है । तबसे निरन्तर महायान मतके साधक-गण इस प्रथाके विरुद्ध
प्रचार करते रहे हैं । सरोरुइपाद ( सरहपा ) नामक सहजयानी
सिद्ध जाति-व्यवस्थाके भयंकर विरोधी थे । वे कहते हैं ...." ब्राह्मण
ब्रह्माके मुखसे उत्पन्न हुए थे ; जब हुए थे तब हुए थे। इस समय तो वे भी
दूसरे लोग जिस प्रकार पैदा होते हैं वैसे ही पैदा होते हैं । तो फिर ब्राह्मणत्व
रहा कहाँ ? यदि कहो कि संस्कारसे ब्राह्मण होता है तो चाण्डालको भी संस्कार
दो, वह भी ब्राह्मण हो जाय ; यदि कहो कि वेद पढ़नेसे कोई ब्राह्मण होता है
तो क्यों नहीं चाण्डालोंको भी वेद पढ़ाकर ब्राह्मण हो जाने देते ? सच पूछो तो
शूद्र भी तो व्याकरणादि पढ़ते हैं और इन व्याकरणादिमें भी तो वेदके शब्द हैं,
फिर शूद्रों का भी तो वेद पढ़ना हो ही गया । और यदि आगमें घी देने से मुक्ति
होती हो तो सबको क्यों नहीं देने देते ताकि सब मुक्त हो जायें ? होम करनेसे
मुक्ति होती हो या नहीं, धुआँ लगनेसे आँखोंको कष्ट जरूर होता है। ब्राह्मण
‘ब्रह्मज्ञान ब्रह्मज्ञान’ चिल्लाया करते हैं। अव्वल तो उनके अथर्व वेदकी सत्ता ही नहीं
है. फिर और तीन वेदोंके पाठ भी सिद्ध नहीं, इसलिए वेदका तो कोई प्रामाण्य
ही नहीं है। वेद तो परमार्थ नहीं हैं; वह तो शून्यकी शिक्षा नहीं देता, वह तो एक
पथकी बकवास है।" इसी प्रकार शिवोपासक योगियों के सम्बन्ध में सरोरूह वज्र
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हिन्दी साहित्यकी भूमिका