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सन्त-मत
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मनुष्य-गणनाके अनुसार अकेले बंगालमें इन योगियोंकी संख्या ३६५९१० थी। ये सारे बंगालमें फैले हुए हैं और कपड़ा बुननेका काम करते हैं। हिन्दू समाजमें उनका स्थान क्या है यह इस एक बातसे अनुमान किया जा सकता है कि १९२१ ई० की मनुष्व-गणनाके समय जब एक जोगी परिवारने अपनेको स्थानीय प्रचलनके अनुसार 'जुगी' न लिखाकर 'योगी' तथा अपनी स्त्रियोंके नामके सामने 'देवी' लगाना चाहा था तो गणनालेखक ब्राह्मणने कहा था कि अपना हाथ कटा देना अच्छा समझूगा परन्तु 'जुगी' को 'योगी' नहीं लिखूंँगा और न इनकी स्त्रियों को 'देवी' लिख सकूँगा ! अब इन जोगियोंकी दृढ़ संगठित सभा हैं जो जोगियोंके सम्बन्धमें अच्छी जानकारी संग्रह कर रही है। ये लोग अपनेको योगी ब्राह्मण भी कहने लगे हैं। इसी प्रकारकी जोगी जालियाँ बिहार में भी पाई जाती हैं और युक्त प्रान्तमें भी किसी जमाने में थीं। कबीर और दादूका इन्हीं जातियों से प्रादुर्भाव हुआ था ! इस बातको ठीक ठीक हृदयंगम न कर सकनेवाले पण्डित कहा करते हैं कि कबीर या दादू सुने-सुनाये ज्ञानकी अटपटी वाणियाँ गाया करते थे।

यदि कबीर आदि निर्गुणमतबादी सन्तोंकी वाणियों की बाहरी रूपरेखापर विचार किया जाय तो मालूम होगा कि यह सम्पूर्णतः भारतीय है और बौद्ध धर्मके अन्तिम सिद्धों और नाथपंथी योगियों के पदादिस उसका सीधा संबंध है। वे ही पद, वे ही राग-रागिनियाँ, वे ही दोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदिने व्यवहारकी हैं जो उक्त मतके माननेवाले उनके पूर्ववर्ती सन्तोंने की थीं । क्या भाव, क्या भाषा,, क्या अलङ्कार, क्या छन्द, क्या पारिभाषिक शब्द सर्वत्र वे ही कबीर- दासके मार्गदर्शक हैं । कबीरकी ही भाँति ये साधक नाना मतोंका खण्डन करते थे, सहज और शून्य समाधि लगानेको कहते थे, दोहोंमें गुरुके ऊपर भक्ति करने का उपदेश देते थे । इन दोहों में गुरुको बुद्धसे भी बड़ा बताया गया है और ऐसे भाव कबीरमें भी बड़ी आसानीसे मिल सकते हैं जहाँ गुरुको गोविन्दके समान ही बताया गया है । 'सद्गुरु' शब्द सहजयानियों, वज्रयानियों, तांत्रिकों, नाथपंथियोंमें समान भावसे समाप्त है।

बहुतसे लोगोंकी कबीरदासके जाति-पातिविरोधी विचारों को देखकर यह धारणा होती है कि कमसे कम यह बात कबीरदासमें मुसलमानी प्रभावके कारण आई है। किसी किसी पडितको तो यह शंका भी हुई है कि ये बातें मुसलमानी