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सन्त-मत

अपभ्रंश साहित्यकी आलोचनासे यह बात स्पष्ट हो जायगी कि चारण कवियों की वीर गाथायें पुरानी परम्पराके अनुसार ही थीं। इस विषयमें कोई मत-भेद नहीं है। पर निर्गुणिया सन्तोंकी वाणीके विषयमें काफी भ्रम फैला हुआ है । यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि कबीरदास ही निर्गुण मतके आदि प्रतिष्ठाता थे। उनका जन्म मुसलमान-वंशमें हुआ था, ऐसा प्रवाद है। कुछ लोगोंका कहना है कि उनका जन्म तो हिन्दू घरमें हुआ था पर लालन-पालन मुसलमान घरमें। जो हो, उनका मुसलमानी वातावरणमें बड़ा होना निश्चित है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में मुसलमानी भावकी साधनाकी गंध मिल जाती है । सही बात यह है कि कुछ नामों, शब्दों और खण्डन करनेके उद्देश्यसे उल्लिखत कुछ सिद्धान्तोंके अतिरिक्त मुसलमानी प्रभाव कबीरमें नहींके ही बराबर है । यह स्मरण रखनेकी बात है कि योगियों का एक बहुत बड़ा सम्प्रदाय अवध, काशी, मगध और बंगालमें फैला हुआ था। ये लोग गृहस्थ थे और इनका पेशा जुलाहे और धुनियेका था। इनमें जो साधु हुआ करते थे वे भिक्षावृत्तिपर निर्वाह करते थे। ब्राह्मण धर्म में इनका कोई स्थान न था । मुसलमानोंके आनेके बाद वे लोग धीरे मुसलमान हो गये और आज भी हो रहे हैं। परन्तु मुसलमान होनेपर भी ये अपनी साधनाओंसे विरत नहीं हुए । बारहवीं शताब्दीमें अब्दुल रहमान नामक ' आरद्द ' या जुलाई कविने 'संदेशरासक' नामक अपभ्रंश- कान्य लिखा था। यह पुस्तक हाल ही जिनविजयजी द्वारा संपादित होकर बंबईसे प्रकाशित हुई है। बंगालमें योगियों के बहुतसे धर्म-प्रन्थ और पुराण मुसलमानी नामधारी लोगोंके लिखे हुए पाये गये हैं । वहाँ योगी नामकी अलग जाति है जो प्रायः समाप्त होनेको आ चुकी थी पर अब जब कि उसमें आत्म- चेतनाका भाव उदय हुआ है वह अपनी हस्ती बचानेका प्रयत्न कर रही है। कबीर, दादू और जायसी ऐसे ही नाम मात्रके मुसलमान थे जिनके परिवारमें योगियोंकी साधना-पद्धति जीवित रूपमें वर्तमान थी। सन् १९२१ की