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भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
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पड़ना स्वाभाविक है। भारतीय साहित्यके सुवर्ण-कालमें भी इस प्रकार विदेशी प्रभाव लक्ष्य किया जा सकता है। परन्तु जिस प्रकार कालिदासको कविताओंमें यावनी या ग्रीक प्रभाव देख कर यह नहीं कहा जाता कि वह दुर्बल जातिकी प्रतिक्रियात्मक मनोवृत्तिका निदर्शक है, उसी प्रकार हिन्दी साहित्यमें भी यह प्रभाव प्रभाव के रूपमें ही स्वीकार किया जाना चाहिए, प्रतिक्रियाके रूपमें नहीं।

अब ध्यान से देखिए तो हिन्दीमें दो प्रकारकी मिन्न मिन्न जातियोंकी दो चीजें अपभ्रंशसे विकसित हुई हैं । (१) पश्चिमी अपभ्रंशसे राजस्तुति, ऐहिकता- मूलक शृंगारी काव्य, नीतिविषयक फुटकल रचनायें और लोकप्रचलित कथानक ! और (२) पूर्वी अपभ्रंशसे निर्गुनिया सन्तोंकी शास्त्रनिरपेक्ष उग्र विचारधारा, झाड़-फटकार, अक्खड़पना, सहज-शून्यकी साधना, योग-पद्धति और भक्ति- मूलक रचनायें। यह और भी लक्ष्य करनेकी बात है कि यद्यपि वैष्णव मत-वाद उत्तर-भारतमें दक्षिण की ओरसे आया पर उसमें भावावेशमूलक साधना पूर्वी प्रदेशोंसे आई । इस प्रकार हिन्दी साहित्यमें दो भिन्न भिन्न जातिकी रचनायें दो भिन्न भिन्न मूलोंसे आई। यह बात पहले ही बताई जा चुकी है कि पश्चिमी प्रदेशोंमें बसे आर्य पूर्वी प्रदेशों में बसे हुए आर्योंसे भिन्न प्रकृतिके हैं । भाषाशास्त्रियोंने यह निश्चित रूपसे सिद्ध कर दिया है कि ये दो भिन्न भिन्न श्रेणीके लोग थे । यह भी ध्यान में रखनेकी बात है कि पूर्वी प्रदेशों में भारतीय इतिहासके आदि कालसे रूढियों और परम्पराओं के विरुद्ध विद्रोह करनेवाले सन्त होते रहे हैं। वैदिक कर्मकाण्डके मृदुविरोधी जनक और याज्ञवल्क्य तथा उग्र विरोधी बुद्ध और महावीर आदि आचार्य इन्हीं पूर्वी प्रदेशों में उत्पन्न हुए थे। समग्र भारतीय साहित्यमें हिन्दी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसमें पश्चिमी आर्यों की रूढ़ि- प्रियता, कर्मनिष्ठाके साथ ही साथ पूर्वी आर्योंकी भाव-प्रवणता, विद्रोही वृत्ति और प्रेम-निष्ठाका मणि-काञ्चन योग हुआ है । इस बातको ठीक ठीक न समझ सकने के कारण ही केवल ऊपरी बातोंको देखनेवाले आलोचक कभी इस भावको मुसलमानी प्रभाव और उस भावको ईसाइयतका प्रभाव कह देते हैं। कभी कभी विचारवान् पण्डित भी ऐसी ऊटपटांग बातें कह जाते है जो नहीं कही जानी चाहिए थीं। आगे हम इन धाराओंकी विशेष जाँच करनेका प्रयत्न करेंगे।