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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


शंकराचार्यका उत्कर्ष ईसाकी आठवीं शताब्दीके आसपास हुआ। उनके मतकी छाप सर्वसाधारणपर पड़ी । उक्त मतका प्रसार संस्कृत भाषाके द्वारा ही होनेके कारण सर्वसाधारणको भाषा संस्कृत शब्द आ गये और धीरे धीरे संस्कृतसे ही हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती आदि संस्कृतप्रचुर भाषायें बनीं । तामिल आदि भाषाओंका इतिहास भी ऐसा ही है। इसलिए तुलसीदास और सूर- दासकी भाषाओंमें संस्कृत शब्दोंकी प्रचुरता होना अपभ्रंश भाषाओंके स्वाभा- विक विकासके विरुद्ध नहीं ले जाता और न इससे उनमें किसी प्रकारकी प्रतिक्रियाका भाव ही सिद्ध होता है।

अब हम हिन्दी साहित्यकी ओर लौटें । आधुनिक युग आरंभ होने के पहले हिन्दी कविता के प्रधानतः छः अंग थे-डिंगल कवियोंकी वीर-गाथायें, निर्गु- णिया सन्तोंकी वाणियाँ, कृष्णभक्त या रागानुगा भक्तिमार्गके साधकोंके पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्गके उपासककोंकी कवितायें, सूफी साधनासे पुष्ट मुसलमान कवियोंके तथा ऐहिकतापरक हिन्दू कवियोंके रोमांस और रीति-काव्य हम इन छहों धाराओंकी आलोचना अगर अलग अलग करें तो देखेंगे कि ये छहों धारायें अपभ्रंश कविताका स्वाभाविक विकास है। कभी कभी यह शंका की गई है कि हिन्दी साहित्यका सर्वाधिक मौलिक और शक्तिशाली अंश अर्थात् भक्ति-साहित्य मुसलमानी प्रभावकी प्रतिक्रिया है और कभी कभी यह भी बताने- का प्रयल किया गया है कि निर्गुणिया सन्तोंकी जाति-पातिकी विरोधी प्रवृत्ति, अवतारवाद और मूर्ति-पूजाके खण्डन करनेकी चेष्टामें ' मुसलमानी जोश' है। किसी किसीने तो कबीरदास आदिकी वाणियोंको 'मुसलमानी हथकंडे ' भी बताया ! ये सभी बातें भ्रममूलक हैं। हम आगे चल कर देखेंगे कि निर्गुण- मतवादी सन्तोंके केवल उग्र विचार ही भारतीय नहीं हैं, उनकी समस्त रीति- नीति, साधना, वक्तव्य वस्तुके उपस्थापनकी प्रणाली, छन्द और भाषा पुराने भारतीय आचार्योंकी देन हैं। इसी तरह यद्यपि वैष्णव मत अचानक ही उत्तर भारतमें प्रबल रूप ग्रहण करता है पर सूरदास और तुलसीदास आदि वैष्णव कवियोंकी समूची कवितामें किसी प्रकारको प्रतिक्रियाका भाव नहीं है । हम देखेंगे कि जिस समाजको ये भक्तगण सुधारना चाहते थे उसमें विदेशी धर्मका कोई प्रभाव उन्होंने लक्ष्य भी नहीं किया था। परन्तु इन सबका यह अर्थ नहीं है कि मुसलमानी धर्मका कोई प्रभाव इस साहित्यपर नहीं पड़ा है। यह कहना अनुचित है । एक जीवित जातिके स्पर्शमें आने पर दूसरीपर उसका प्रभाव