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भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
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चंदका मूल कान्य बहुत कुछ अपभ्रंशकी प्रकृतिका था और आज वह जिस रूपमें मिलता है वह उसका अत्यन्त विकृत रूप है। असलमें अपभ्रंश भाषा में काव्यरचना चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दी तक होती रही, यद्यपि इसके बहुत पहले ही उसने नई भाषाको स्थान दे दिया था। विद्यापतिने पूर्व देश में एक ही साथ तत्काल प्रचलित लोक-भाषा और अपभ्रंश दोनों में काव्य लिखा था। यहाँ एक बात विचारणीय रह जाती है। यदि आधुनिक भाषायें इन अपभ्रंशोका स्वाभा- विक विकास हैं तो क्या कारण है कि इनमें इतनी अधिकतासे संस्कृतके तत्सम शब्दोंका प्रयोग होता है जब कि अपभ्रंशके काव्यों में खोजने पर भी संस्कृतके शब्द अपने मूल रूपोंमें नहीं मिलते ? मेरा तात्पर्य वर्तमान भाषासे नहीं बल्कि सूरदास तुलसीदास आदिकी प्राचीन काव्य-भाषासे है। केवल पुस्तकगत भाषामें ही नहीं उन दिनों में प्रचलित बोलचालकी भाषामें भी संस्कृत तत्सम शब्द, अपभ्रंश भाषाओंकी अपेक्षा अधिक मात्रामें बोले जाते थे। ऐसा न होता, तो कबीर और दादू आदिकी भाषामें तत्सम शब्दोंके प्रयोग नहीं मिलते। निश्चयः ही मुसलमानोंने इन शब्दोंका प्रचार नहीं किया था।

असलमें बौद्ध-धर्मके उच्छेद और ब्राह्मण धर्मकी पुनः स्थापनासे भारतकी- धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितिमें अभूतपूर्व क्रान्ति उत्पन्न हो गई। बौद्ध धर्मका प्रसार साधारणतः विदेशियोंमें ही अधिक हुआ । क्यों कि सनातन आर्य धर्म वेदको प्रामाण्य मानता था पर बौद्ध और जैनधम नहीं, इसलिए वे विदे- शियोंके लिए अधिक ग्राह्य हो सके । जैनधर्मका प्रभाव भी अधिकांशमें शक, हूण आदि विदेशागत अधिवासियोंपर ही पड़ा होगा जो धीरे धीरे इस देशमें क्षत्रियत्व और वैश्यत्वका पद प्राप्त करने लगे थे। सन् इसवीके आठ-नो सौ वर्ष बीतनेपर इस देशमें प्राचीन वैदिक धर्म बड़े जोरोंसे उठ खड़ा हुआ। इस समयके ऐसे बड़े बड़े राजे जो अधिकांश में क्षत्रियत्वका पद प्राप्त करनेके प्रयासी रहे होंगे ब्राह्मण आचार्योंके प्रभावमें आते गये और इस प्रकार संस्कृत भाषाको बहुत बल मिला । जनतामें धर्म-प्रचार करनेके लिए जिन पुराणोंकी सहायता ली गई वे संस्कृतमें लिखे गये थे। कथावाचक लोग इनकी व्याख्या लोक- भाषासें करते होंगे पर उनकी भाषामें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता रहती होगी। फिर, जैसा कि श्री चिन्तामणि विनायक वैद्यने कहा है, इसी समय संस्कृत भाषाके प्रचारमें शाङ्कर मतकी विजयसे विशेष सहायता मिली होगी।