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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


की गई थी और भारतवर्षके पश्चिमोत्तर सीमान्तमें बोली जाती थी। आभीरोंका विशेष प्रकारका स्वर-वैचित्र्य और उच्चारण-प्रावण्य इसका प्रधान लक्षण था। यद्यपि यह आभीरी नामसे पुकारी गई, पर थी आर्यभाषा ही।

(२) सन् ईसवीकी छठी शताब्दीमें इस भाषा साहित्य सृष्ट हो चुका था, जिसे भामह और दण्डी जैसे आलंकारिकोंने उल्लेखयोग्य समझा । अब भी यह आभीरोंसे विशेष रूपसे संबद्ध मानी जाती थी। अनुमान है कि आभीरोंके हाथमें राज्य-सत्ता आनेके साथ इसमें काव्य लिखे जाने लगे होंगे।

(३) नवी शताब्दीमें यह जनसाधारणकी भाषा समझी जाने लगी और इसका विशेष संबंध केवल आभीर आदिसे ही है, यह धारणा जाती रही। अब तक यह सौराष्ट्रसे मगधतक फैल चुकी थी। तत्तत् स्थानोंके अपभ्रंशोंमें निश्चय ही भेद रहे होंगे पर कान्यके लिए आभीरों द्वारा प्रोत्साहित भाषा ही साधारण भाषा मान ली गई थी।

(४) ग्यारहवी शताब्दीमें आलंकारिकों और वैयाकरणोंने लक्ष्य किया था कि अपभ्रंश कोई एक भाषा नहीं है बल्कि स्थान-भेदसे अनेक प्रकारकी है। अर्थात् यहाँतक आकर अपभ्रंशका व्यवहार लोकभाषाके अर्थमें होने लगा था।

(५) अपभ्रंश कविताके विषय अधिकतर नीतिसंबंधी और धार्मिक उपदेश, शृंगार रसकी रचनायें और लोकप्रचलित कथानक थे। ★

इस प्रकार इस देश में मुसलमानी सत्ताकी प्रतिष्ठाके बहुत पूर्वसे ही निश्चित रूपसे लोक-भाषाको राजकीय सम्मान प्राप्त हो चला था। जैसा कि पहले ही कहा गया है इस सम्पूर्ण साहित्य में ऐसा कोई कथन नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध हो सके कि लोक भाषामें लिखनेके कारण कोई कवि अपनेको छोटा समझ रहा हो । पृथ्वी- राजका दरबारी कवि चंद बलद्दिय (चंद वरदाई) हिन्दी भाषाका आदि कवि माना जाता है। असलमें वह अपभ्रंशका अन्तिम कवि अधिक है और हिन्दीका आदि कवि कम, क्योंकि उसका काव्य अब जिस रूपमें पाया जाता है वह रूप मौलिक नहीं है। इस ग्रंथमें इतनी प्रक्षिप्त बातें आ घुसी हैं कि ओझाजी जैसे ऐतिहासिक पंडित इसे एकदम अप्रामाणिक और जाली ग्रंथ समझते हैं । हालमें 'पुरातन प्रबंध-संग्रह के प्रकाशनके बादसे वह बात निश्चित रूपसे सिद्ध हो गई है कि


★विशेष विवरण के लिये श्री पाण्डुरंग गुणेकी सम्पादित 'मविसयत्तकहा' की मका ( बड़ोदा १९३३ ) देखिये ।