पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/३९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
२५
 


वैचित्र्य और उच्चारण-प्रावण्य प्रधान हो उठा। स्वभावतः ही उस स्वर- वैचित्र्य पीछे अनेक स्थानों की प्राकृत भाषायें रही होंगी। और नमिसाधुके उद्ध- रणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मागधी प्राकृतका भी अपभ्रंश रूप विद्यमान् था।

राजशेखरकी काव्य-मीमांसाके विषयों पहले ही कहा जा चुका है । उन्होंने जो कवि-सभा अपभ्रंश कवियों के पीछे बढ़ई, लुहार, लेपकार आदि जन-साधा- रणके कारीगरोंको बैठाना निर्दिष्ट किया है वह इस बात का सबूत है कि यह भाषा जनसाधारणकी थी। राजशेखरके युगमें यह भाषा जी रही थी, इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने अन्तःपुरके परिचारकोंका अपभ्रंशभाषाविद् होनेका निर्देश किया है। इसका कारण यह था कि इन परिचारकोंको जनसाधारणको बातें राजा तक पहुँचानी होती थीं। इस प्रकार अपभ्रंश भाषा जनसाधारणकी भाषा थी फिर भी उसमें कविता होती रही । राजशेखरकी इस पुस्तकसे यह भी प्रमाणित होता है कि जिन प्रदेशों में आभीरोंका प्राधान्य था वहाँके लोगोंकी भाषामें अपभ्रंशकी बहुलता थी। उनके मतसे गौड़ या बंगाल देशके लोग संस्कृत- में अधिक रुचि रखते थे, लाट देश या गुजरात के लोग प्राकृतमें; और मारवाड़, टक्क (हरियाना) और भादानक (मिर्जापुर और बुदेलखण्ड?)के लोग अपभ्रंश- से मिलते हुए प्रयोगवाली भाषा बोलते हैं (पृ० ५१) वही अन्यत्र कहते हैं कि सुराष्ट्र (काठियावाड़) और त्रवण ( मारवाड़) के लोग अपभ्रंश बोलते हैं। इस प्रकार मूलतः अपभ्रंश मारवाड़, हरियाना (पंजाब), भादानक (बुदेलखंड), सुराष्ट्र ( काठियावाड़) में अधिक प्रचलित थी। सुप्रसिद्ध विद्वान् प्र० म० पं० हरप्रसाद शास्त्रीने अपभ्रंशका जो 'वौद्ध गान ओ दोहा' नामक संग्रह प्रकाशित किया है, और जिसे वे पुरानी बँगला कहना चाहते हैं, -उस जैसे दो एक ग्रंथोंके अपवादको छोड़कर अधिकांश अपभ्रंशके काव्य इन्हीं प्रदेशों से प्राप्त हुए हैं । इनमें से बहुत-से काव्य दिगंबर जैनोंके लिखे हुए हैं जो मारवाड़ और बुंदेल- खण्डमें अब भी बसे हुए हैं। श्वेताम्बर जनोने प्राकृतमें लिखने में जैसी पटुता और तत्परता दिखाई है वैसी अपभ्रंश में नहीं ★। इस प्रकार ऊपरके सारे वक्त- व्यका सारांश पंडितोंने इस प्रकार दिया है

(१) अपभ्रंश भाषा सन् ईसवीके प्रथम शतकमें आभीरी भाषाके नामसे लक्ष्य


★ दे. परिशिष्ट : जैन साहित्य ।