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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 

मा गोलिणि मण गव्वु करि, पिक्खि वि पड्डुरुयाई ।
पंच‌इ सई विहुत्तरां, मुंजह गय गथाई ॥
मुंज मणइ मिणालवइ, केसा काइं न्युयंति ।
लद्ध‌उ साउ पयोहरहं, बंधण भाणिअ रआन्ति ।।
मुंज मुणइ मिणालवइ, गउ जुब्बण मण झूरि।
जइ सकर सयखण्ड किय, तोइ स मिट्ठी चूरि ।।


स्वयं महाराज भोजने अपभ्रंशसे मिलती हुई प्राकृत भाषाकी कविता लिखी थी और उसे बड़े आदरके साथ अपनी भोजशालामें खुदवाके जड़ा था। यह भोजशाला आज-कल धारकी कमाल मौला मस्जिदके नामसे मशहूर है ! राजा भोजकी इस अपभ्रंश कविताकी कहानी जितनी ही करुण है उतनी ही मजेदार भी। सन् १९०५ में प्रोफेसर हचको स्थानीय एजुकेशनल सुपरिण्टिडेण्ड मिस्टर लेलेने खबर दी कमाल मौला मस्जिदका मिहराब टूट गया है और उसमें दो-चार पत्थर निकल आये हैं जिनपर पुरानी नागरीमें इन पत्थरोको उलट कर मस्जिदमें जड़ दिया गया था ताकि लिखा हुआ अंश पढ़ा न जा सके । अब ये पत्थर खिसककर गिर पड़े तो उनका पढ़ना संभव हुआ। पर मुसलमानोंने हठ किया कि वे पत्थर वहाँसे हटाये नहीं जा सकते ! इच साइबने भारत सरकारसे लिखा-पढ़ी की और सरकारके हस्तक्षेपका नतीजा यह हुआ कि पत्थर लगा तो उसी मिहराबमें दिया गया पर लिखी हुई पीठ सामने कर दी गई। फिर भारत सरकारकी व्यवस्थासे ही उसका प्रत्यंकन उक्त प्रोफेसरको भेज दिया गया। दो पत्थरोपर राजा भोजके वंशज अर्जुनदेव वर्माके गुरु गौड़ ब्राह्मण मदन कविकी लिखी हुई एक नाटिकाके दो अंक थे। शेष दो अंक भी निश्चय ही उसी मिइराइमें कहीं चिपके होंगे। बाकी पत्थरोंपर महाराज भोजके लिखे हुए आर्या छन्द खोदे गये थे। ये अपभ्रंश भाषासे मिलती जुलती प्राकृतमें लिखे गये थे। इस सिलापट्टकी प्रतिच्छवि 'एप्रिग्राफिका इण्डिका' की ८ वी जिल्दमें छपी है।

यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है, और बहुतसे यूरोपियन पंडितोंने किया भी है कि यह अपभ्रंश नामसे प्रसिद्ध भाषा क्या सचमुच लोक-भाषा थी ! विक्रमोर्वशीयके चतुर्थ अंकनें जिस अपभ्रंशके नमूने पाये जाते हैं उसकी भीतरी जाँचका परिणाम यह निकला है कि उसमें किसी एक सर्व