पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
२१
 


और प्राकृतकी कवितायें समान भावसे उद्धृत की गई हैं और मूंँड़ मारके भी कोई यह नहीं सिद्ध कर सकता कि ग्रंथकारने इन कविताओंको कम महत्त्वकी चीज समझा था। मुसलमानी सत्ताकी प्रतिष्ठाके बाद कभी कभी इस बातका सबूत मिल जाता है। जैसे केशवदासके वक्तव्यसे कि ग्रंथकार संस्कृतके बदले लोक भाषामें कविता लिखने के लिए लज्जित है । पुष्पदन्त, स्वयंभू आदि कवियोंने अपने ग्रंथों में अत्याधिक विनय प्रकट किया है और विविध विषयों के प्रति अपने अज्ञानकी बात कही है। परंतु इन विषयोंको सूचीसे ही स्पष्ट हो जाता है कि इस विनयके पीछे कितना बड़ा गर्व । हालही में मुनि जिन्दविजयजोने 'पुरातन प्रबंधसंग्रह' का सम्पादन किया है। इस ग्रंथसे पता चलता है कि एक बार राजा भोजने 'सिद्ध रस' बनाना चाहा था, जो न बन सका था। इसपर राजाने सिद्ध रसके बनानेका दावा करनेवाले योगियों का मजाक करने के लिए लोक मात्राका एक नाटक लिखा कर अभिनय कराया था। नाटक अब खेला जा रहा था और पात्र जब आपसमें कह रहे थे-

कालिकां नट्ठा नट्ठा कस्स कस्स नागस्स वा बंगल्स वा।
नहि धम्मन्त फुक्कन्त अम्ह कन्त सीसस्स कालिम...★

यह सुनकर जब राजा लोट पोट होकर हँस रहा था तो उसे संबोधन करके एक सिद्ध-रस योगी बोला-

अस्थि कहत किंपि न दीसइ ।
नत्थि कहउ त सुहगुरु रूसई ।।
जो जाणइ सो कहइन कीमइ ।
अजाणं तु विथारइ ईमइ---॥

इस ग्रंथसे और भी अनेकानेक राजाओंके दरबारोंमें लोक-भाषाके पयप्ति सम्मानका प्रमाण पाया जाना है । और केवल राजा भोज या उनके पूर्ववर्ती राजा इन कविताओंका सम्मान ही नहीं करते थे, स्वयं भी कविता लिखते थे। भोज राजाके पूर्वाधिकारी और उनके पितृव्य महाराज मुंजकी अपभ्रंश कवितायें किसी भी भाषाके गर्वका विषय हो सकती हैं। इन दोहोंको थोड़ा-सा रूपान्तरित कर दिया जाय तो वे प्राचीन हिन्दीके हो जायेंगे । दो-एक उदाहरण उद्धृत जा सकते हैं-


★ पूरा पद नहीं पाया गया है । अन्तिम अंशके टूट जानेसे मतलब अपूर्ण रह जाता है ।

+है कहूँ तो कुछ नहीं दिखता, 'नहीं है' कहूँ तो सतगुरु रुष्ट होते हैं जो जानता है वह कहकर प्रकट नहीं कर सकता; आर्योका, किन्तु, विचार ऐसा है।