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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


कई भाषाओंमें कविता करता हो तो जिस भाषामें वह अधिक प्रवीण हो उसी भाषाका कवि उसे माना जायगा । जो कई भाषाओंमें बराबर प्रवीण है वह उठ उठकर जहाँ चाहे बैठ सकता है। संस्कृत कवियोंके पीछे वैदिक, दार्शनिक, पौराणिक, स्मृतिशास्त्री, वैद्य, ज्योतिषी आदिका स्थान रहेगा । पूर्वकी ओर प्राकृत भाषाके कवि और उनके पीछे नट, नर्तक, गायक, वादक, वाग्जीवन, कुशीलव, दालावचर आदि रहेंगे। पश्चिमकी ओर अपभ्रंश भाषाके कवि और उनके पीछ चित्रकार, लेपकार, मणिकार, जौहरी, सुनार, बढ़ई, लोहार आदिका स्थान होना चाहिए । दक्षिणकी और पैशाची भाषाके कवि और उनके पीछे वेश्या, वेश्या-लम्पट, रस्सोंपर नाचनेवाले नट, जादूगर, जम्भक (?), पहल- वान, सिपाही आदिका स्थान निर्दिष्ट रहेगा।

राजशेखरके इस वक्तन्यसे इतना तो स्पष्ट ही है कि अपभ्रंशकी कविता राजसमादृत होती थी, परन्तु यह भी निश्चित है कि उसका पद संस्कृत और प्राकृत के बाद था । संस्कृतका आदर इस देशमें हमेशासे ही रहा है पर इससे यह निष्कर्ष निकालना अन्याय है कि मुसलमानोंके आगमनके पहले अप- भ्रंश वा लोकभाषाका स्थान उपेक्षणीय समझा जाता था। किन्तु आज तक भी कभी ऐसा समय नहीं आया जब हिन्दू राजाओंने लोकभाषाका स्थान संस्कृतके बराबर या ऊपर समझा हो । मुसलमानी सत्ताका होना या न होना इसका कारण नहीं है। इसका मतलब यह हुआ है कि यदि मुसलमानोंके आनेके पहले लोक- भाषाको कोई अच्छी मर्यादा नहीं मिली तो वह बादमें भी नहीं मिली। और मेरो दृष्टि में सही बात तो यह है कि मुसलमानी शासनके प्रभावसे अवस्था चाहे जो कुछ भी क्यों न रही हो, उसके पहले प्राकृत और अपभ्रंशकी ५ कवितायें संस्कृतके समान ही आदर पाती थीं। कबीरने जो कहा था कि, ‘संस्कृत कूप-जल कबीरा भाषा बहता नीर ।' वह मुसलमानी प्रभावके कारण नहीं । ठीक इसी प्रकारकी उक्ति बहुत बहुत पहले कही जा चुकी थी। असलमें दसवीं ग्यारहवीं शताब्दीमें “ उत्ति-विसेसो कब्नं भाषा जा होउ सा होउ" वाली धारणा बद्धभूल हो चुकी थी। शायद ही कोई उल्लेखयोग्य संस्कृत भाषाका अलंकारशास्त्री हो जिसने संस्कृतकी कविताओंके साथ ही साथ प्राकृत और तत्काल प्रचलित लोक-भाषाकी कविताओंका विवेचन न किया हो । संस्कृतके उत्साहशील प्रचारक राजा भोजके सरस्वती-कंठाभरण' के विषय में भी यही बात ठीक है। इस ग्रंथमें भी संस्कृत