पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/३३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
१९
 


कान्य), 'कालिकाचार्य-कहा ' और 'प्रबंध-चिन्तामणि' आदिमें स्थल स्थलपर अपभ्रंशका प्रयोग किया गया है । हेमचंद्रने अपने प्राकृत व्याकरण' में अपभ्रंशके जो १७५ उदाहरण दिये हैं, वे भी अपभ्रंश साहित्यके उत्कृष्ट नमूने हैं। उनसे मालूम पड़ता है कि अपभ्रंश साहित्य बहुत विस्तृत और उन्नत था ! उन उदाहरणोंमें शृंगार, वीरता, रामायण और महा- भारतके अंश, हिन्दू और जैनधर्म तथा हास्यके नमूने मिलते हैं। इस भाषाके साहित्य प्रायः जैनियोंने बहुत परिश्रम किया है।" *

यह तो स्पष्ट ही है कि ओझाजीने अपभ्रंश साहित्यके उत्कर्षके विषयमें जो कुछ कहा है उसका संबंध उस कालसे है जब मुसलमान इस देशमें नही आये थे और यदि आये भी थे तो जम नहीं पाये थे। लेकिन यह बात विवादास्पद नहीं है। लोक-भाषाका साहित्य हमेशा वर्तमान था, इस बात में कभी दो मत नहीं रहे। लेकिन जिस बातपर यहाँ जोर दिया जा रहा है वह यह है कि नाना कारणोंसे इस कालमें अपभ्रंश कवियोंका सम्मान भी राजदरबारों में होता था और राजा लोग इन कवियों को अपने दरबार में रखना उतना ही आवश्यक सम- झते थे जितना संस्कृत भाषाके कवियों और पंडितोको । इतना ही नहीं अधि- कांश राजा इनसे विशेष अनुराग प्रकट करने लगे थे। हमारे आलोच्य युगके आरंभमें राजशेखर कविने 'कान्य-मीमांसा' नामक एक विशाल विश्वकोश लिखा था। दुर्भाग्यवश संपूर्ण ग्रंथ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है, उसका केवल एक अंश ही पाया गया है। इस अंश में भी हमारे कामकी बहुत-सी बातें हैं। राजशेखरने राजदरबारके जिस आदर्शका विधान किया वह सचमुच ही उस प्रकारका हुआ करता था, यह विश्वास करने में कोई बाधा नहीं । राज- शेखर कहते हैं कि राजाका कर्तव्य होना चाहिए कि वह कवियोंकी सभाओंका आयोजन करे। इसके लिए एक सभामंडप बनवाना चाहिए जिसमें सोलह खम्भे, चार द्वार और आठ अटारियाँ हो । राजाका क्रीड़ा-गृह इससे सटा हुआ होना चाहिए। इसके बीच में चार खम्भों को छोड़कर हाथ-भर ऊँचा एक चबूतरा होगा और उसके ऊपर एक मणि-जटित वेदिका । इसी वेदिकापर राजाका आसन