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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


बादमें चलकर यह लोक-भाषाका ही नामान्तर हो गया । वररुचिके प्राकृत- प्रकाशमें उस युगकी भाषाके साहित्यिक रूपका वर्णन है। लोक-प्रचलित भाषा कुछ और ही थी । भाषाशास्त्रियोंने लक्ष्य किया है कि अपभ्रंश नामक उत्तर- कालीन काव्य-भाषामें ऐसे बहुतसे प्रयोग पाये जाते हैं जो वास्तवमें वररुचिके महाराष्ट्री और शौरसेनीके प्रयोगोंकी अपेक्षा प्राचीनतर हैं। उदाहरणार्थ, 'कहा' (बा ब्रजभाषाका 'कहो') प्रयोग उत्तरकालीन अपभ्रंश 'कहिउ' से निकला है। इसके अपभ्रंश और प्राकृत भेदोंकी तुलना की जा सकती है-अपभ्रंश ऋषिदो या ' कहिदो भागधी 'कधिदे'. या 'कहिदे' महाराष्ट्री 'कघिदो' और उत्तरकालीन अपभ्रंश' कहिउ' स्पष्ट ही पुराने अपभ्रंश रूप कघिदो' और 'कहिदो ' महाराष्ट्री रूपोंसे पुराने हैं ।

इस अपभ्रंश साहित्यके विषयमें सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् म० म०पं० गौरीशंकर हीराचंद ओझाजी 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति' नामक ग्रंथमें लिखते हैं कि " अपभ्रंश भाषाका प्रचार लाट (गुजरात), सुराष्ट्र, त्रवण (मारवाड़), दक्षिणी पंजाब, राजपूताना, अवन्ती और मन्दसोर आदिमें था। वस्तुत: अपभ्रंश किसी एक देशको भाषा नहीं किन्तु मागधी आदि भिन्न भिन्न प्राकृत भाषाओं के अपभ्रंश या निगड़े हुए, रूपवाली मिश्रित भाषाका नाम है। उसका प्रायः भारतके दूर दूरके विद्वान् प्रयोग करते थे। राजपूताना, मालवा, काठियावाड़ और कच्छ आदिके चारणों तथा भाटोंके डिंगल भाषाके गीत इसी भाषाके पिछले विकृत रूपमें हैं । पुरानी हिन्दी भी अधिकांश इसीसे निकली हैं । इस भाषाका साहित्य बहुत विस्तृत मिलता है जो बहुधा कविताबद्ध है। इसमें दोहा-छन्द प्रधान । इस भाषाका सबसे बृहत् और प्रसिद्ध ग्रंथ नक्सियत्त-कहा है जिसे धनपालने दसवीं सदीमें लिखा । महेश्वरसूरिकृत 'संजममंजरी', पुष्पवन्तविरचित 'तिसछिमहापुरिसगुणालंकार', नयनंदी- निर्मित 'आराधना', योगीन्द्रदेवलिखित 'परमात्म-प्रकाश', हरिमद्रका 'नेमिनाहचरिउ', वरदत्तरचित 'वैरसामिचरिउ', अन्तरंग संधि मुलसाख्यान ', 'भत्रियकुटुंबचरित्र' 'सन्देशशतक' और ' भावनासंधि' आदि भी इसी भाषाके ग्रंथ हैं । इनके अतिरिक्त भिन्न भिन्न ग्रंथोंमें,- सोमप्रभके 'कुमारपालप्रतिबोध', रत्नमंदिरगणिकी 'उपदेशतरंगिणी', लक्ष्मण गाणिकृत 'रासनाहचरियम् ',' दोहाकोष', कालिदासकृत ' विक्रमोर्वशीय' (चतुर्थ अंक), हेमचंद्रलिखित 'कुमारपालचरित', ( प्राकृत द्वशाश्रय