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यह बहुत प्रसिद्ध बात है कि हिन्दी साहित्यके जन्मके बहुत पहले अपभ्रंश या लोकभाषामें कविता होने लगी थी। परन्तु कई लोग इस बातमें सन्देह ही प्रकट करते है कि हिन्दुओंके राजस्व कालमें उसे कोई प्रोत्साहन भी मिलता था। ऐसे लोगोंका भ्रम बहुत ही निराधार युक्तियोंपर अवलंबित है जिसका निरास बहुत कठिन नहीं है । परन्तु उक्त कार्य करनेके पूर्व इस विषयका विचार कर लेना आवश्यक है कि अपभ्रंश है क्या वस्तु । असलमें बहुतसे लोगोंमें अपभ्रंश भाषाके विषयमें बहुत-सी भ्रान्त धारणायें हैं । मैं अगर इस बातको ठीक ठीक अपने रास्ते समझानेका प्रयत्न करूँ तो मुझे फिर कुछ पहलेसे ही आरंभ करना पड़ेगा । उसके लिए अप्रासंगिताका दोषभागी नहीं बननेका ही प्रयत्न करूँगा!

प्राकृतके सर्वाधिक प्राचीन व्याकरणमें चार प्रकारकी प्राकृतोंकी चर्चा है- प्राकृत, शौरसेनी, मागधी और पैशाची । चार अध्यायोंमें उक्त चारोंकी विवेचना की गई है। प्रथम अध्यायमें जिस प्राकृतकी चर्चा की गई है उसका कोई नाम नहीं दिया गया है। वह एक प्रकारकी स्टैंडर्ड प्राकृत परन्तु शौरसेनीके प्रकरणमें विशेषतायें बता देनेके बाद ग्रंथकारने अन्तमें एक सूत्र कहा है— 'शेषं महाराष्ट्रवत्' अर्थात् बाकी महाराष्ट्रीके समान समझना चाहिए ! इसते यह अनुमान होता है कि पहले अध्यायमें जिस प्राकृतकी चर्चा है वह महाराष्ट्री है। मागधी मगध और बंगालकी भाषाओंका प्राचीन रूप है ! पैशाची कहाँकी भाषा थी, इस बातमें नाना प्रकारके अटकल लगाये गये हैं। प्राचीन ग्रन्थों में कभी यह दर्दिस्तानकी, कभी विन्ध्याचलकी पहाड़ियोंकी, कभी सुदूर दक्षिणकी भाषा मानी गई है। जान पड़ता है यह उस समवक्री आर्येतर जातियोंद्वारा बोली जानेवाली आर्य भाषा है । वे उसका शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते होंगे और अपने नादाभ्यासके अनुकूल विकृत करके बोलते होंगे । रह गई शौरसेनी और महाराष्ट्री । वस्तुतः प्राकृत वैयाकरणोंने