पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२९०

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रखकर अवरोंके लिए प्रवाल (मूंगे), बिंब फल, बंधूक पुष्प, पल्लव तथा मीठे पदार्थोंसे उपमा देनेकी प्रथा है। मुखके भीतरी अवयवोंमें दाँतोंमें श्वेतता, अधोभागकी लालिमा और अत्यन्त दीप्ति वर्णमीय गुण माने गये हैं। इसके सिवा दाँतोंका बत्तीस होना भी सौभाग्यका लक्षण माना जाता है । इन गुणों के लिए मुक्ता, माणिक्य, नारंगी, दाडिम-कुन्दकली और ताराओंसे उपमा देते हैं। सामुद्रिक लक्षणोंके अनुसार कुन्दकलीके समान दाँत स्त्रियोंको पति-सुखके दाता माने गये हैं। दाँतोंका संबंध हँसीसे है। शायद इसीलिए हास्यमें भी इन गुणोंका होना आवश्यक समझा गया है। इसके लिए ज्योत्स्ना, चन्द्रमा, फूल, अमृतके फेन और कैरवकी उपमाएँ प्रसिद्ध हैं। जीभकी उपमा अञ्चल दोला आदिसे देते हैं । जीभकी अपेक्षा आणीका वर्णन करना ही कवियोंमें अधिक प्रसिद्ध है। गोवर्धनने वाणी में दो गुण वर्णनीय बताये हैं : माधुर्य और स्पष्टता (अ० शे० पृ० ४९) । इसके लिए उपमान हैं : हसावली, शुक, किन्नर, वेणु, वीणा, कोकिल और मीठी चीजें । कंठके लिए गोवर्धनने दीर्घता और त्रिरेखता ये दो गुण बताये हैं (अ० शे० पृ० ४९)। इसका उपमान कंबु (शंख) और कपोत हैं । ग्रीवा और कंठके उपमान एक ही हैं । वराहने कंबुके समान प्रीवाको सुखका कारण माना है । वराहने कोकिल और इसके समान वाणीको अनल्पमुखका कारण कहा है (७०-७) और ग्रीवाके लिए भी 'ग्रीवा च कंबुनि- चितार्थसुखानि धत्ते (७०-७) कहा है। यह आश्चर्य की बात है कि कवि लोग जहाँ मुखमण्डलपर तिलका भी वर्णन करना नहीं छोड़ते वहाँ वे कानको एकदम भूल गये हैं। कानका वर्णन कवियों ने जहाँ किया है वहाँ स्वतंत्र बुद्धिसे, रूढिके पालनार्थ नहीं। कंठ और क्षटिका मध्यवर्ती भाग--इस प्रदेशके निम्नलिखित अंग विशेष रूपसे वर्णनीय समझे गये हैं : बाहु, हाथ, अंगुलियाँ, नख, वक्षःस्थल, नाभि, त्रिवली, रोमाली, पृष्ठ और कटि । उदरका कोई खतंत्र वर्णन नहीं मिलता, जहाँ मिलता है वहाँ कटि या मध्यभागके अर्थमें उसका प्रयोग रूढ हो गया है । गोवर्धनके मतसे भुजमै मृदुता और समता; हाथमें मृदुता, शीतलता और ललाई: स्तनों में अग्रभागकी श्यामता और नाभिगामिता; ये वर्णनीय गुण हैं। १ अ० शे० १३-७१ २ गोवर्धन ! ३ अलंकारशेखर १३-८ । ४ ० सं०७०।६। ५ अलंकारशेखर १३-१५ } ६-७ अलंकारशेखर १३-८ ।