शताब्दियोंमें भारतीय इतिहासकी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घटना अर्थात् इस्लामका
प्रमुख विस्तार न भी घटी होती तो भी बह इसी रास्ते जाता। उसके भीतरकी
शक्ति उसे इसी स्वाभाविक विकासकी ओर ठेले लिये जा रही थी। उसका
वक्तन्य विषय कथमपि विदेशी न था । प्रोफेसर हेबेलने अपने 'हिस्ट्री आफ
आर्यन रूल' में लिखा है कि मुसलमानी सत्ताके प्रतिष्ठित होते ही हिन्दू
राजकाजसे अलग कर दिये गये इसलिए दुनियाकी झंझटोंसे छुट्टी मिलते ही
उसमें धर्मकी ओर जो उनके लिए एकमात्र आश्रय-स्थल रह गया था,
स्वाभाविक आकर्षण पैदा हुआ। यह गलत व्याख्या है । मैं प्रस्ताव करता हूँ
कि हमारे पाठक आगेके सहस्राब्दककी साहित्यिक चेतनाको जातिकी स्वाभाविक
चेतनाके रूपमें देखें, अस्वाभाविक अधोगतिके रूपमें नहीं। अवश्य ही जो
अंश उसमें अस्वाभाविक भावसे बाधाग्रस्त ओर विकृत है, उसे मैं भूल
जानको नहीं कहता। पर हिन्दी साहित्यके अध्ययनसे उन्हें विश्वास हो सकेगा
कि यह सारा सहस्राब्दकका साहित्य भावी इतिहासमें बौद्ध वा अन्य किसी भी
कालके इतिहाससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
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भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
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