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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


अधिक है जो किसी एक ही प्रदेशमें माने जाते हैं । इन सब बातोंसे सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उस युगका पांडित्य लोक-जीवनकी ओर झुकने लगा था । हम देख चुके हैं कि बौद्ध पंडित भी लोक-मतकी ओर नत हो चुके थे और ये स्मार्त पांडेत भी उसी ओर झुके ! परन्तु दोनोंका झुकाव दो दिशाओंमें हुआ। एक निकृष्ट कोटिके जादू, टोना, टोटका आदिकी ओर झुके और दूसरे लोक-जीवनके अकिञ्चितकर निरर्थक आचार-व्यवहारकी ओर । इस प्रकार स्मार्त और बौद्ध दोनों ही हिन्दी साहित्यके जन्म-कालके समय लोक- मतका प्राधान्य स्वीकार कर चुके थे।

इम उत्तर और पूर्वकी अवस्था देख चुके, मध्यदेशकी अवस्थासे भी परि- चित हो गये, अब पश्चिम सीमाके यशस्वी प्रदेश राजपूताने और पंजाबकी अवस्था देखी जाय | राजपूतानेके चारण कवियोंके मुखसे और नाना स्थानोंके लेखों आदिसे सच्ची परिस्थिति हमें मालूम होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इधर प्राचीन क्षत्रिय-दर्प और वीरता ज्योंकी त्यों वर्तमान थी। पर बहुलांशमें अपने दुर्बल संगठन और अयथागामी कुलाभिमानके कारण छोटे छोटे राजा और सामन्त आपसमें सदा जूझते रहे । इस वीरत्व-परम्परा, कुलाभिमान और बुद्ध-शौण्डताका अतिरंजित वर्णन कवियों और चारणोंने किया है । जैसे जैसे संस्कृत भाषा लोक-भाषासे दूर हटती गई तैसे तैसे सामान्तोंके यशोगान के लिए वह अनुपयुक्त सिद्ध होती गई । हिन्दू राजाओंके दरबार में अब भी संस्कृत कवि- योका मान था पर साथ ही प्राकृत और अपभ्रंशके कवियोंको भी स्थान मिलने लगा ! संस्कृतकी कवितायें लोक-भाषाके द्वारा बोधगम्य कराई जाती थीं और इस प्रकार मूल कविताका स्वाद कुछ बाधा पाकर राजा और सामन्त तक पहुँचता था; पर अपभ्रंशकी कविता सीधे असर करती थी । ऐसे राजा बहुत कम हुए जो संस्कृत अच्छी तरह समझ सकते हों। इसका अवश्यंभावी परि- णाम यह हुआ कि अपभ्रंश भाषा कविताका राजानुमोदित वाहन हो गई । एक बार राजाश्रय पाकर वह बड़ी तेजीसे चल निकली । यहाँ भी हम देखते हैं कि लोक भाषाकी ओर झुकाव स्वाभाविक रूपसे ही हो चला था, किसी बाहरी शक्तिके कारण नहीं।

ऊपरकी बातोंसे अगर कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता हो तो वह यही हो सकता है कि भारतीय पाण्डित्य ईसाकी एक सहस्राब्दी बाद आचार-विचार और भाषाके क्षेत्रोंमें स्वभावतः ही लोककी ओर झुक गया था। यदि अगली