पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२६३

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२४० हिन्दी साहित्यकी भूमिका नील पुष्पोंवाली । धन्वन्तरि निघंटुक्के मतसे पीत सौरेयक (या झिण्टी) को कर- पटक और रक्तको कुरवक कहते हैं । झिण्टीको हिन्दी में कटसरैया या पियावासा कहते हैं । लाल फूलोंकी कटसरैया ही कुरवक कहलाती हैं। अमरकोषके अनुसार भी कुरबकके फूल लाल होते हैं। रामायणके वसन्त-वर्णनमें रक्त कुरवकोका उल्लेख मिलता है। कालिदासने श्यामावदातारुण अर्थात् कालिमा सफेदी लिए हुए लाल कुरवक युष्पोंका वर्णन किया है। मेरे मित्र प्रो० इरिदास मित्रने, जिनको वृक्ष-विज्ञान के संबंधमें अच्छी जाब- कारी है, शान्तिनिकेतनमें लगे हुए एक वृश्चको कुरवक बतलाया है। यह वृक्ष कचनारकी जातिका है। क़दमें कुछ छोटा और जरा झाड़ीदार होता है। देखनेसे - पहले जान पड़ता है कि कचनार ही है । वसन्तके आरम्भमें ही फूलता है, फूल सादे होते हैं, वन्तके पास पपड़ियों के किनारेपर ईषत् लालिमा होती है। इस पुष्पको देखकर कोविदारका स्मरण हो आता है। निघंटुकारोंने कोविदार और काञ्चनारको एक ही पुष्प माना है। पर भावमिश्रने दोनोंका अलग अलग पाठ किया है। भावमिश्रके मतसे काञ्चनार शोणपुष्य या लाल फूलोंका होता है और कोविदार श्वेत पुष्पका । राजशेखरने वसन्त वर्णनके प्रसंगमें काञ्चनार और कोविदारका अलग अलग वर्णन किया है। लेकिन रामायण और ऋतुसंहारमें कोविदार पुष्पका वर्णन शरद् ऋतुमें किया गया है। हमें ठीक नहीं मालूम कि कोई काञ्चनार शरद् ऋतुमें खिलता है या नहीं, पर ऊपरके उद्धरणोंसे इतना तो स्पष्ट ही है कि राजशेखर और भावमिश्र एक तरहका कोविदार जानते थे और वाल्मीकि और कालिदास दूसरी तरहका । हरिदास बाबूका वृक्ष भावमिश्र- सम्मत कोविदार तो नहीं हैं ? अन्ततः वह कुरवक तो नहीं ही है। कालिदासने कुरबक पुष्प वसन्त ऋतुमें-खिलते देखा था। रघुवंशमें इसका वर्णन वसन्तमें आया है । मालविकाग्निमित्रके वसन्त-वर्णनका ऊपर उल्लेख हो चुका है। ऊपरकी प्रसिद्धिका उल्लेख कान्य-मीमांसामें नहीं है। पर काव्य-मीमांसा- के उद्धत श्लोकोंसे इस प्रसिद्धिका समर्थन होता है (दे०२ टि०)। मेघदूतमें कालिदासके यक्षके उद्यानके प्रसङ्गमें उससे कहलवाया है कि उस उद्यानके माघवी- रा०४-१-२१ । २ भावप्रकाश, पुष्पवर्ग। ३ काव्य मीमांसा, १९ अध्याय ४ रा०४-३०-६२।५ ऋतुसंहार ३-६।६ रघुवंश०९-२९ .