पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२५१

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२२८ - हिन्दी साहित्यकी भूमिका इसी संग्रहश्लोकसे परिचय था। जो हो, संस्कृत साहित्यमें वृक्षदोहदसंबंधी प्रसिद्धियों में इन चार वृक्षोंकी ही विशेष रूपमें चर्चा है। मूर्तियों और भित्तिचित्रों आदिमें केवल अशोकका पुष्पोद्गम ही चित्रित मिलता है (दे० शीर्षक ३) अन्य क्षोंके दोहद हमें देखनेको नहीं मिले। केवल एक चित्र देखकर तिलकका सन्देह होता है । उपयुक्त स्थलपर इसकी चर्चा की जायगी । ३ वृक्ष-दोहदका मूल वक्षदोहद भारतीय साहित्य और शिल्पमें एक विचित्र चीज है। इसका रहस्य अतीतके धुंधले प्रकाशमें आच्छन्न है। आगे इसे समझनेकी चेष्टा की जा रही है। ___ इस रहस्यको समझनेके लिए एक विस्मृत इतिह्मसपर धैर्यके साथ दृष्टिपात करना होगा। विक्रमके सैकड़ों वर्ष पहले भारतवर्षमें एक समृद्ध आर्येतर सभ्यता वर्तमान थी। आयोंकी राजनीतिक और भाषा-सम्बन्धी विजयके बाद यह जाति भी धीरे धीरे उनकी छत्रछायाके अन्दर आ गई। पर इसके पहले आयौँके साथ इसका पर्याप्त संघर्ष हुआ होगा। राजनीतिक दृष्टि से इसकी विजय हुई हो या पराजय, परन्तु भारतीय साहित्य और शिल्पपर इस जातिने अपनी ऐसी अमिट छाप लगा दी है कि हजारों वर्षकी निरन्तर उपेक्षाके बाद भी वह अपने सम्पूर्ण रस-सौन्दर्यके साथ जीवित है। हमारा मतलब यक्षों और नागोंसे है। शायद यूरोपियन पंडितों में फर्गुसनने ही पहले पहल विद्वत्ताके साथ यक्षों और नागोंके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्वकी ओर पंडित-मंडलीका ध्यान आकृष्ट किया। अपनी पुस्तक 'ट्री ऐण्ड सपेण्ट वरशिप' (वृक्ष और साँपोंकी पूजा) में उन्होंने कहा कि यश और नाग, जो क्रमशः उर्बरता और वृष्टिके देवता माने गये थे, एक जातिवर्ण-हीन दस्यु या असुर जातिके उपास्य थे। क्रमशः ज्यों ज्यों फर्गसनके मतकी आलोचना होने लगी त्यों त्यो नये नये रहस्य प्रकट होते गये। इस सिलसिले में दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं: वोगेल(Vogel) की 'इण्डियन सण्ट लोर और ए. के. कुमार स्वामीका ' यक्ष' (दो भाग)। दुसरी पुस्तकमें प्राचीन साहित्य और मूर्ति-शिल्पके विस्तृत अध्ययनसे इस अट्ठारहवें अध्यायके वसन्त-वर्णनमें यह श्लोक है नाहिंगितः कुरबकस्तिलको न दृष्टो नो ताडितश्च सुदृशां चरौरशकः । सिक्तो न ववमधुना बकुलश्च चैत्रे चित्रं तथापि भवति प्रसवावकीर्णः।।