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भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
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भाव फैला हुआ-सा जान पड़ता है कि बिना इनका सहारा लिये कोई मतवाद टिक ही नहीं सकता । ईसाकी पहली सहस्राब्दीमें ही इस मनोभावने जड़ जमा ली थी और वह उत्तरोत्तर बद्धमूल होता गया। यहाँ यह स्मरण करा रखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि यह चिन्ता-पारतंत्र्य मुसलमानी धर्मके जन्मके बहुत पहले सिर उठा चुका था और परवर्ती हिन्दी साहित्यमें इसके उग्र रूपको देखकर यह कहना कि यह विदेशी शासनकी प्रतिक्रिया थी; बिलकुल गलत होगा। असलमें, वह कोई और कारण होना चाहिए जिसने भारतीय चिन्तामें इस चिन्ता-पारतंत्र्यको जन्म दिया, विदेशी आक्रमण नहीं।

जिस युगसे हमारा विशेष सम्बन्ध है उस युगका पाण्डित्य प्रत्यक्ष जीवनसे और भी दूर हटता जा रहा था। जहाँ छठी-सातवीं शताब्दीके पंडितोंके आत्मोपलब्ध ज्ञान और प्रत्यक्ष जीवनमें वेदोपनिपद् आदि दो-एक ग्रंथ ही ही मध्यवर्तीका काम करते थे वहाँ दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दीके पंडितके लिए सभी आचार्य और उनके ग्रंथ भी बीच में आ जुटे । इस प्रकार जिन दिनों बौद्ध धर्म उत्तरोत्तर लोक-धर्ममें घुल-मिल रहा था, उन्हीं दिनों ब्राह्मण धर्म उत्तरोत्तर अलग होता जा रहा था। मूल ग्रंथोंको टीकायें, उनकी भी टीकायें, इस प्रकार कभी कभी छः छः आठ आठ पुश्त तक टीकाओंकी परम्परा चलती गई। लेकिन ये टीकाये सर्वत्र चिन्ता-पारतंत्र्यकी निदर्शक नहीं हैं, कभी कभी स्वतंत्र मतोंके प्रतिपादनार्थ भी लिखी गई थीं । शुरू शुरूमें तो यह बात और भी सच थी। ऐसी टीकाओंको असलमें टीका न कह कर स्वतंत्र ग्रंथ ही कहना चाहिए । प्राचीन ग्रंथोंसे उनको जोड़ रखनेका मतलब यहीं होता था कि अपने मतको आर्ष और श्रुतिसम्मत सिद्ध किया जा सके। ये टीकायें साधारणः भाष्य कहलाती थीं, पर इन भाष्योंकी टीकायें और उनकी भी जो टीकायें लिखी गई उनमें क्रमशः स्वाधीन चिन्ता कम होती गई। उनका उद्देश्य उपजीव्य ग्रंथोंकी अच्छी-बुरी समस्त युक्तियोंका तर्क-बलसे समर्थन करना हो गया । अब, यह निश्चित है कि ग्यारहवीं शताब्दी में इन ग्रंथों, भाष्यों, टीकाओं और उनकी टीकाओंकी परम्परा बहुत अधिक बढ़ गई थी। यह आगे चलकर और भी बढ़ती चली गई। यहीं इसने एक नया रास्ता पकड़ा। टीका-परंपराकी इस नई शाखाको हम निबंध-साहित्य कह सकते हैं ★ । ग्यारहवीं शताब्दीके बाद


★ 'टीका' शब्द यहाँ बहुत व्यापक अर्थमें लिया गया है। असलमें सभी प्रकारको